उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में लोग सदियों से पीने के पानी के लिए नौलों (Naula) का इस्तेमाल करते आए हैं. नौले पहाड़ों में भूमिगत जल स्रोतों के संरक्षण की एक बहुत पुरानी परंपरा है, जिसे विशेष आकार और तकनीक से बनाया जाता था और पहाड़ी सभ्यता के लोग इन नौले में एकत्रित शुद्ध जल को पीने के पानी के रूप में उपयोग करते थे. इन नौलों पर पूरे गांव की आबादी निर्भर रहती थी और इनकी साफ-सफाई और संरक्षण का जिम्मा गांव के लोगों पर ही रहता था. पिथौरागढ़ में भी नौले और धारे ही पीने के पानी के मुख्य साधन हुआ करते थे. आज भी कई ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पीने के पानी के लिए इन नौलों पर ही निर्भर रहते हैं.
एक तरफ जहां ग्रामीण क्षेत्रों में यह नौले आज भी संरक्षित किए हुए हैं, तो वहीं पिथौरागढ़ शहर में बढ़ती आबादी और शहरीकरण से नौलों का पानी प्रदूषित हो गया है. घरों में अब लोगों को नलों के माध्यम से पानी की आपूर्ति होती है और शुद्ध पानी इकट्ठा करने के मकसद से पहाड़ों में परंपरागत तकनीक से बने नौले के पानी का उपयोग घटता जा रहा है. जिससे पिथौरागढ़ शहर के नौले उपेक्षित होते गए और आज हालात यह हैं कि शहर के अधिकांश नौलों का पानी अब पीने लायक नहीं रह गया है.
उत्तराखंड में इन नौलों-धारों का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी काफी महत्व है. यहां पर पहाड़ी इलाकों में कई नौले बेहद प्राचीन हैं. उत्तराखंड में विवाह और अन्य विशेष अवसरों पर नौलों-धारों में जल पूजन की भी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा दिखाई देती है, जो एक तरह से मानव जीवन में जल के महत्व को दर्शाती है. जरूरत है तो इन नौलों के संरक्षण की, जिससे पर्यावरण का सतत विकास तो होगा ही, साथ ही सांस्कृतिक विरासत के तौर पर हिमालय की यह पुरातन परंपरा फिर से जीवित हो सकेगी.
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