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बुश से बाइडन तक... अफगानिस्तान में 4 राष्ट्रपतियों ने ऐसी क्या गड़बड़ी की जिसे समेटने में अमेरिका को आ रहा पसीना

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की अंतिम तारीख 31 अगस्त तय की गई है. (फाइल फोटो)

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की अंतिम तारीख 31 अगस्त तय की गई है. (फाइल फोटो)

Taliban in Afghanistan: तालिबान ने 31 अगस्त को खतरे की सीमा (रेड लाइन) बताया है और अब बाइडन को फैसला लेना है कि वो वहां ...अधिक पढ़ें

    नई दिल्ली. पिछले चार महीनों से अमेरिकी राष्ट्रपति बार-बार एक बात दोहरा रहे थे कि वो अफगानिस्तान के युद्ध को पांचवें अमेरिकी राष्ट्रपति को नहीं सौंपना चाहते हैं. साफ तौर पर उनके बयान से जाहिर होता है कि 20 साल पहले शुरू हुए युद्ध को वो अब आगे ले जाने के पक्ष में नहीं थे. 2001 के बाद से ही प्रत्येक राष्ट्रपति ने अपने-अपने तरीके से अफगानिस्तान में मुकाबले का सामना करने के लिए मिशन को बेहतर बनाने की कोशिश की, जिसका नतीजा ये रहा कि वहां हज़ारों अमेरिकी और अफगानियों की जान गई, लेकिन तालिबान के हार ना मानने के जिद्दी रवैये के आगे अफगानिस्तान में राजनीतिक नेतृत्व में सुधार को लेकर निराशा ही हाथ लगी.

    बाइडन ने अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के अपने फैसले के बारे में बयान जारी करते हुए कहा कि सैनिकों को हटाना एक जरूरी कार्रवाई थी क्योंकि जिस उद्देश्य से वह वहां थे, वो अब नज़र नहीं आ रहा था, साथ ही ये पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ जो करार किया था ये उसी के तहत लिया गया फैसला है. पिछले हफ्ते उन्होंने कहा था कि अमेरिकी और अफगानी जो युद्ध में सहायता कर रहे थे उन्हें बाहर निकालने में जो अराजकता हुई उसके बारे में अनुमान था और उसे टाला नहीं जा सकता था.

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    लेकिन विश्व के सुपर पॉवर जिसने अपने प्रयासों को पूरा करने के लिए हजारों जान और अरबों डॉलर गंवाए उसका तालिबान को देश इस तरह सौंप देना और काबुल ने चुपचाप निकलना कई सवाल खड़े करता है. किस तरह अमेरिका ने अफगानिस्तान में 20 साल बिताए, किस तरह तालिबान को नियंत्रण सौंपने के लिए उसके सैनिकों को हटाया गया, इतिहासकारों के लिए दशकों तक शोध और चर्चा का विषय रहेगा कि आखिर इस पूरे कालक्रम की जिम्मेदारी किसके कंधों पर होगी.

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    जॉर्ज डब्ल्यू बुश
    सितंबर 11, 2001 में हुए आतंकी हमले जिसकी साजिश अलकायदा ने अफगानिस्तान में रची थी, उसके बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने वैश्विक आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने की शपथ ली थी. उन्होंने तालिबान से जिसके कब्जे में लगभग पूरे अफगानिस्तान का नियंत्रण था, उससे संपर्क साधा और उनके देश में छिपे अलकायदा के नेता जिसमें ओसामा बिन लादेन भी शामिल था, उसे सौंपने के लिए कहा, लेकिन जब तालिबान ने अमेरिका से कोई संपर्क नहीं साधा, तो अमेरिका ने युद्ध स्तर पर कदम उठाए. कांग्रेस ने 18 सितंबर, 2001 को 9/11 के खिलाफ जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का फैसला लिया, हालांकि सांसदों ने अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई के लिए समर्थन में कभी भी स्पष्ट वोट नहीं दिया था. बुश ने दो दिन बाद कांग्रेस से संयुक्त सत्र में कहा था कि ये कार्रवाई किसी भी दूसरी कार्रवाई की तुलना में एक लंबा चलने वाला अभियान होगा. हालांकि बुश को भी अंदाजा नहीं था कि ये युद्ध इतना लंबा खिंच जाएगा.

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    7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिकी सेना ने यूनाइटेड किंगडम की मदद से स्थायी स्वतंत्रता नाम से ऑपरेशन की आधिकारिक घोषणा की, इस युद्ध के शुरुआती दौर में अलकायदा और तालिबान को निशाना बना कर हवाई हमले शामिल थे. लेकिन नवंबर महीने में 1300 अमेरिकी सैनिकों का एक दल भी अफगानिस्तान में पहुंचा. ये आंकड़ा आने वाले महीनों में बढ़ता गया और इस तरह अमेरिकी और अफगानी सेना ने तालिबान सरकार को गिराकर बिन लादेन के पीछे पड़ी रही जो काबुल के दक्षिणपूर्वी गुफा टोरो बोरा कॉम्पलेक्स में छिपा हुआ था. हालांकि बिन लादेन सीमा पार करके पाकिस्तान भागने में कामयाब हो गया.

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    आने वाले महीनों और सालों में बुश ने तालिबानी हमलावरों से मुकाबले के लिए अफगानिस्तान में और सैनिक भेजे, मई 2003 में पेंटागन में घोषणा की गई कि अफगानिस्तान में चली बड़ी लड़ाई अब खत्म हो चुकी है, अब अमेरिका और उसके दूसरे अंतराष्ट्रीय साझेदारों का लक्ष्य देश में फिर से कानून व्यवस्था लागू करके पश्चिमी तरीके का प्रजातांत्रिक राजनीतिक तंत्र स्थापित करना था. इस तरह वहां मौजूद तालिबान की सख्ती खत्म हो गई और हज़ारों लड़कियों और महिलाओं को स्कूल जाने और नौकरी करने की अनुमति दी गई. लेकिन अफगानिस्तान सरकार में मौजूद भ्रष्टाचार से अमेरिका को निराशा हुई और इस तरह से तालिबान ने फिर से मुंह उठाना शुरू कर दिया.

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    उसी दौरान वाशिंगटन का ध्यान दूसरे युद्ध की तरफ लग गया था, इस वक्त सामने ईरान था, जिसकी वजह से अफगानिस्तान की तरफ से ध्यान और सैन्य संसाधन दोनों हट गए. ऐसे वक्त में ही जब चुनाव हुए तो 2004 में बुश दोबारा चुने गए, अब अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या का स्तर 20,000 तक पहुंच चुका था, जबकि अमेरिका का पूरा ध्यान इराक में जो कुछ चल रहा था उस पर लगा हुआ था. आने वाले सालों में अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों का जमावड़ा बढ़ता रहा. वहीं तालिबान दक्षिण के ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा था. जब 2009 में बुश चुनाव हारे उस दौरान यहां 30.000 सैनिक मौजूद थे और तालिबान पूरी ताकत के साथ विद्रोह में जुटा था.

    बराक ओबामा
    2009 में व्हाइट हाउस में बराक ओबामा आ चुके थे और उन्हें विरासत में बुश से युद्ध मिला था. उस वक्त शीर्ष जनरलों ने तालिबान को कमज़ोर करने के लिए सेना के स्तर में उछाल की सिफारिश की थी जो लगातार हमले करने में लगा हुआ था. काफी लंबी आंतरिक बहस के बाद, ओबामा ने और 10 हजार सैनिकों को अफगानिस्तान भेजने फैसला लिया, हालांकि बहस के दौरान उप-राष्ट्रपति बाइडन ने हमले का विरोध किया था. उसी समय एक वापसी समयसारणी तय की गई जिसके हिसाब से 2011 के बाद से सैनिकों को वापस बुलाने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी और तालिबान और अलकायदा से जारी युद्ध के मापक पैमानों का आकलन किया जाएगा. एक टेलीविजन कार्यक्रम के दौरान ओबामा ने कहा था कि अतिरिक्त सैन्य दल, की बदौलत अमेरिकी से अफगान में जिम्मेदारी के हस्तांतरण में मदद मिलेगी, लेकिन बाद में सहयोगियों ने कहा था कि मिलेट्री कमांडरों की जवाबी कार्रवाई की नीति से ओबामा फंसा महसूस कर रहे थे.

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    अगस्त 2020 तक अफगानिस्तान में सैन्य दल 1 लाख तक पहुंच चुका था, लेकिन अमेरिकी गुप्तचर संस्था को बिन लादेन का दूसरे देश में होना पता चला, ये देश था पाकिस्तान, जहां पर मई 2011 में नेवी सील के हमले में वो मारा गया, इसके बाद ओबामा ने 2014 तक अफगान से सुरक्षा जिम्मेदारी को संभालने के लक्ष्य को पूरा करते हुए अमेरिका सेना को घर बुलाने की घोषणा की. आने वाले सालों में अमेरिका अफगानिस्तान के नेताओं के साथ कूटनीति में उलझा रहा और इस तरह से सेना की संख्या में तेजी से कमी आई. अपने दूसरे कार्यकाल में अपनी टीम के सदस्यों के साथ देश के प्रति एक नजरिया कायम किया, जो था- अफगान बेहतर है. यह पश्चिमी तरीके के लोकतंत्र को स्थापित करने का एक प्रयास था जो पूरी तरह से निराशाजनक था, 31 दिसंबर, 2014 को ओबामा ने बड़ी स्तर पर चलाए जा रहे युद्ध के अंत की घोषणा की.

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    अब अमेरिका ने अपने मिशन का रुख अफगान सेना को प्रशिक्षण देने और उनकी मदद करने की तरफ कर लिया था. सैन्य दल की कमी के साथ ओबामा के कार्यकाल में उसे पूरी तरह वापस बुलाने का खाका खिंच चुका था. लेकिन एक साल बाद, जब ओबामा का कार्यकाल समाप्ति पर था, ओबामा ने अफगानिस्तान के नाजुक सुरक्षा हालात को देखते हुए पूरी तरह सेना के वापस बुलाने के फैसले की संभावनाओं से हाथ खींच लिए. जब उन्होंने पद छोड़ा उस दौरान अफगानिस्तान में 10,000 सैनिक तैनात था और ओबामा ने एक बयान में कहा था कि उनके बाद आने वाले राष्ट्रपति तय करेगे की उन्हें क्या फैसला लेना है.

    डोनाल्ड ट्रंप
    राष्ट्रपति के उम्मीदवार के तौर पर ट्रंप ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस लाने की कसम खाई थी, लेकिन तालिबान के लगातार हमले और इस्लामिक राज्यों की संबंद्धता बढ़ने से उन्हें वादा पूरा करने में दिक्कत आने लगी. अफगानिस्तान के अपने पहले बड़े फैसले में, ट्रंप ने पेंटागन से सैन्य स्तर के अधिकार को आउटसोर्स किया. उनकी टीम को दो भागों में विभाजित किया, पहला उनके सैन्य सलाहकारों के बीच जो लगातार कट्टर राष्ट्रवादियों की उपस्थिति की वकालत करते रहे और दूसरे जो विदेशी हस्तक्षेप का विरोध करते हैं.

    आगे चलकर अगस्त 2017 को ट्रंप ने स्वीकार किया कि उन्होंने सोचा था कि अमेरिकी सेना का वापस बुला लेंगे लेकिन हालात को देखते हुए ये असंभव है. उन्होंने अमेरिकी की उपस्थिति को पूरी तरह भविष्य पर छोड़ दिया और उसके लिए किसी भी तरह की कोई निश्चित तारीख या समय़ सीमा देनें से इनकार कर दिया, बल्कि ये कहा कि आगे क्या फैसला होगा ये जमीनी स्तर पर हालात तय करेंगे.

    एक साल बाद, ट्रंप ने अफगान-अमेरिकी अनुभवी दूत ज़ालमय खलीलजाद को तालिबान के साथ युद्ध खत्म करने के लिए बातचीत करने का काम सौंपा. इस वार्ता में अफगानिस्तान सरकार को ज्यादातर बाहर ही रखा गया जिसकी वजह से अमेरिका और राष्ट्रपति अशरफ गनी के बीच ठन गई. इसी दौरान तालिबान ने लगातार हमले करना जारी रखे, जिसमें काबुल पर हुआ हमला भी शामिल है जहां कई बेगुनाह नागरिकों की जान चली गई थी. इसके बाद ट्रंप ने 2019 में कैंप डेविड में एक शांति वार्ता बुलाई और बाद में उसे स्थगित कर दिया, लेकिन खलीलजाद के साथ चर्चा जारी रही.

    इसके बाद फरवरी 2020 में एक करार किया गया जिसमें अमेरिकी सेना को पूरी तरह से हटाने की बात के एवज में तालिबान से वादा लिया गया कि वो हिंसा की वारदातों में कमी लाएगा और आतंकी संगठनों से अपने संबंध तोड़ेगा. लेकिन उसमें उन वादों के बारे में कोई जिक्र नहीं था जिसे लागू करने के पैंटागन में कहा गया था लेकिन पूरा नहीं हुआ था. यहां तक कि अमेरिकी सेना के जगह छोड़ते हुई तालिबान को ताकत मिल और मई 2021 को अमेरिकी सेना के पूरी तरह छोड़ने की समयसीमा ट्रंप के अगले उत्तराधिकारी के खाते में चली गई.

    जो बाइडन
    जनवरी में कार्यभार मिलने से पहले ही जो बाइडन ने अफगानिस्तान के बारे में विचार करना शुरू कर दिया था. ओबामा के कार्यकाल में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को हटाने की उनकी सलाह के माने जाने के बाद अब वो इस स्थिति में थे कि वो बेवजह के युद्ध को खत्म करने का फैसला ले सकते थे. अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के शुरुआती महीनों में बाइडन को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दल से सलाह मिली थी कि अफगानिस्तान से सेना के हटाते ही वहां सरकार का पूरी तरह से पतन हो जाएगा और अफगानिस्तान फिर से तालिबान के कब्जे में आ जाएगा. इसके विपरीत तालिबान के साथ ट्रंप के समझौते में मई समयसीमा थी जिसके बाद अमेरिकी सेना पर भी हमले हो सकते थे.

    आखिरकार जो बाइडन ने घोषणा की कि अफगानिस्तान में मौजूद बाकी 2500 सैनिकों को 11 सितंबर, 2001 तक वापस बुलाया जाएगा, इस तरह बाइडन ने साफ कर दिया था कि अमेरिका का उद्देश्य पूरा हो चुका है और अफगानिस्तान को एक स्थायी लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए अब कुछ और करने को नहीं रह जाता है.

    जैसे ही पेंटागन ने अपने बलों को तेजी से बाहर निकालने का काम किया, वैसे ही समय-सीमा में भी तेजी आई, 2 जुलाई को बगराम एयरफील्ड जो अमेरिकी सैन्य शक्ति का प्रतीक था, उसे अफगान सेना को सौंप दिया. उधर तालिबान के प्रांतों की राजधानियों पर हमले जारी थे और ज्यादातर जगह अफगान सेना बगैर किसी विरोध के अपना राज्य तालिबान को सौंपती जा रही थी.

    15 अगस्त को तालिबान ने उस वक्त काबुल पर कब्जा जमा लिया जब अशरफ गनी देश छोड़कर भाग गए. अफगानिस्तान का जो पतन हुआ उसे देखकर अमेरिकी अधिकारियों का कहना था कि ये अनुमान से भी तेजी से हुआ. अमेरिका और उसके सहयोगियों ने उन नागरिकों और अफगान सहयोगियों को निकालने के लिए जल्दबाजी में एक मिशन शुरू किया, जिन्होंने युद्ध के दौरान सहयोग दिया था, इन पर प्रतिशोध की कार्रवाई की आशंका बनी हुई थी.

    बाइडन ने 6000 सैनिकों का एक दल वापस अफगानिस्तान भेजा जिससे काबुल के अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट हामिद करजई को सुरक्षित किया जा सके और इस तरह लोगों को बाहर निकाला जा सके, लेकिन इस सैन्य दल के छोड़ कर जाने की नई समय सीमा- 31 अगस्त-अभी भी मौजूद है. तालिबान ने इसे खतरे की सीमा (रेड लाइन) बताया है और अब बाइडन को फैसला लेना है कि वो वहां पर अपना विस्तार करें या वापस आएं.

    Tags: Afghanistan, Barack obama, Donald Trump, Joe Biden, Taliban, United States

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