गया जिला मुख्यालय से 60 किमी दूर बाराचट्टी प्रखंड के कहूदाग पंचायत के कोहवरी गांव में सर्वोदय आश्रम चल रहा है, यह आश्रम को एक युवा दंपति चलाते हैं, इस आश्रम में 26 बच्चों को आवासीय शिक्षा दी जाती है यहां बच्चों को सर्वांगीण विकास के लिए पुराने जमाने की विधि यानी ऋषि मुनि के तर्ज पर बच्चों को शिक्षा दी जाती है, जहां बच्चे दंपति को अंकल और आंटी कहते हैं.
इस गांव में आने के लिए झारखंड से सटे बीहड़ जंगलों में घुस कर आना पड़ता है, जहां नक्सलियों की आहट भी सुनाई पड़ती है.
बेहतरीन जॉब छोड़ कर नक्सलग्रस्त इलाके के जंगल मे गरीब बच्चों को शिक्षित कर रहा यह युवा दंपति अनिल और रेखा हैं. दोनों दिखने में सिंपल है लेकिन इनकी पढ़ाई दिल्ली यूनिवर्सिटी से हुई है और दोनों उच्च शिक्षा प्राप्त हैं. अनिल दो विषयो में एमए और एमफिल की डिग्री हासिल करते हुए एक अच्छी नौकरी कर रहे थे तो रेखा भी एमए, कम्प्यूटर शिक्षा के साथ योगा की अच्छी ट्रेनिंग ली हुई हैं.
दोनों पटना के समीप के रहने वाले हैं. अनिल बताते हैं कि अपने काम में उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी. वो समाज के लिए कुछ करना चाहते थे और गांव में रहना चाहते थे. उनकी पत्नी की भी यही राय थी इस कारण वो दिल्ली छोड़कर बिहार आ गए और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के बताने पर वर्ष 2017 में यहां आ गए.
यहां आकर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की और वहीं गरीब टोला के बच्चों को पढ़ाने लगे. यह बच्चे आश्रम में ही रहते हैं. बच्चों को वो अलग पद्धति से शिक्षित करते हैं. गांव और ग्रामीण परिवेश ही यहां के शिक्षा का मूल आधार है. दंपति बताते हैं कि नौकरी करके और शहर में रहकर हम खुश नहीं थे. दोनों की भी चाहत थी कि हम लोग गांव में जाएं और गांव में जाकर खेती करें या बच्चों को शिक्षित करें.
खेती करने के लिए जमीन चाहिए थी, जो मेरे पास नहीं थी तो बच्चों को शिक्षित करने का आईडिया पर काम किया, भूदान कमेटी ने इस जगह के बारे में जानकारी दी और यहां आकर देखा तो लगा कि इस सुदूर इलाके में शिक्षा की बहुत जरूरत है. अनिल बताते हैं कि हम दोनों दिल्ली से 2017 में आकर इस गांव में एक झोपड़ी में रहने लगे, पहले लोगों को समझ में नहीं आया, और पागल भी कहने लगे,लेकिन आज लोग चाहते हैं कि मेरा बच्चा यहां रहकर पढ़े.
अनिल बताते हैं कि यहां बच्चों को पढ़ाई का बोझ नहीं देना चाहते हैं, बच्चे को हम माहौल देते हैं. वो खुद से पढ़ें और दूसरों को पढ़ायें. यहां बच्चों को शिक्षा के साथ, खाना बनाना, पशुपालन, खेती करना भी सिखाते हैं. बड़ी बात है कि 26 बच्चे आसपास के अनुसूचित जाति के हैं लेकिन कोई बच्चा घर नहीं जाता. शिक्षा ले रहे बच्चे अनिल और आदित्य बताते है कि यहां दूर-दूर तक कोई सरकारी या निजी स्कूल नहीं है अगर अंकल और आंटी हमलोगों को नही पढ़ाते तो हम भी जंगलों में लकड़ी काटते
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