कालचक्र पूजा में आत्मा को बुद्घत्व प्राप्ति के लायक शुद्ध और सशक्त बनाने हेतु आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता है. प्रचलन में यू तो कालचक्र पूजा को बौद्ध श्रद्धालुओं का महाकुंभ कहा जाता है लेकिन यह कालचक्र पूजा अपने आप में अनूठा और शक्तिशाली प्रार्थना माना जाता है. इस प्रार्थना के महा उत्सव की अगुवाई तिब्बतियों के आध्यात्मिक धर्मगुरू दलाईलामा करते हैं. इस साल 11 जनवरी से पूजा आरंभ हो रहा है. इस पूजा में जापान, भूटान, तिब्बत, नेपाल, म्यांमार, स्पेन, रूस, लाओस, श्रीलंका के अलावा कई देशों के बौद्ध श्रद्धालु और पर्यटक भाग लेते हैं.
कालचक्र का अर्थ समय का चक्र है. जो तिब्बती बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसे तंत्र का महाअनुष्ठान भी कहा जाता है. इसे पूरा करने का अधिकार मात्र दलाईलामा को होता है. इसमें दलाईलामा का सहयेाग कुछेक दक्ष लामाओं द्वारा किया जाता है.
इसमें प्रथम मंडला निर्माण के लिए धर्मगुरू द्वारा भूमि पूजन किया जाता है. उसके बाद तांत्रिक विधि विधान से मंडाला का निर्माण धर्मगुरू की देखरेख में बौद्ध लामाओं द्वारा किया जाता है. इसके लिए भूमि का चयन उत्तर-पूर्व दिशा में होता है. चयनित भूमि पर एक गढ़ा खोदा जाता है और फिर इसी गढे से निकली मिट्टी से उसे भरा जाता है. माना जाता है कि यदि मिट्टी गढे से अधिक हो तो शुभ होता है. जबकि अगर कम पड़ जाए तो अशुभ होता है.
पूजा के दूसरे दिन मंडल स्थल को बुरी आत्माओं से दूर रखने के लिए लामाओं द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य किया जाता है. फिर मंडाला के लिए पवित्र रेखा खींची जाती है. मंडाला निर्माण में तीन दिन का समय लग जाता है.
कालचक्र तंत्र अपने आप में ही समय के विभिन्न चक्त्रों को दर्शाता है. कालचक्र की नीव जीव के चार मूल्य सत्यों पर रखी जाती है. बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाले अगर काचचक्र के दौरान दीक्षा लेते हैं तो उसका अर्थ होता है कि साधक अब कालचक्र तंत्र की कोशिश कर सकता है. कालचक्र तंत्र की मुख्य देवी पुरूष व स्त्री तंत्र का ही मिलाप दर्शाती है. कालचक्र पूजा के अंतिम दिन धर्मगुरू के दीर्घायु की कामना की जाती है.
बताया जाता है कि मध्य एशिया के शंबल(तिब्बत) के शासक सुचंद्र के निवेदन पर भगवान बुद्ध ने कालचक्र का उपदेश दिया था. यह उपदेश दक्षिण भारत के धन्यकटक के स्तूप में दिया गया था. उन्होंने अनुत्तर योग तंत्र के साथ-साथ यमनांतक, चक्रसंभार तंत्र सहित अन्य तंत्रों का संचरण किया.जिसे बाद में भारतीय दो पंडितों द्वारा कालचक्र परंपरा को भारत लाया गया.