जहां आज पूरा विश्व पर्यावरण को बचाने मे लगा है वहीं आज से 700 सौ साल पहले इस खतरे को विश्नोई समाज के प्रवर्तक भगवान जांभोजी ने आम आदमी और अपने अनुयायी यानि विश्नोई समाज के लोगों को बता दिया था. खेजडली गांव जोधपुर से करीब 25 किलो मीटर दूर है. विश्नोई समाज मरते दम तक पेड़ों से चिपक कर उनकी रक्षा सदियों से करता आया है और कर रहा है. 1730 में खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई समाज ने जो बलिदान दिया है वो मानव इतिहास में अद्वितीय है.
खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आए तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है. यह मेरा भाई है. इसे मैंने राखी बांधी है. इसे मैं नहीं काटने दूंगी. इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिए तुम लोगों की क्या तैयारी है. इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण अर्थात हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिए तैयार है. खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आए तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है. यह मेरा भाई है. इसे मैंने राखी बांधी है. इसे मैं नहीं काटने दूंगी. इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिए तुम लोगों की क्या तैयारी है. इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण अर्थात हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिए तैयार है.
उस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गए, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गई.
कुछ दिन बाद मंगलवार 21 सितम्बर 1730 ई. भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787 को मंत्री गिरधारी दास भण्डारी लावलश्कर के साथ पूरी तैयारी से सूर्योदय होने से पहले आए, जब पूरा गांव सो रहा था.
गिरधारी दास भण्डारी की पार्टी ने सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के हरे पेड़ों की कटाई करना शुरू किया तो, आवाजें सुनकर अमृता देवी अपनी तीनों पुत्रियों के साथ घर से बाहर निकली. उसने ये कृत्य विश्नोई धर्म में वर्जित होने के कारण उनका विरोध किया. तब मंत्री गिरधारी दास भण्डारी की पार्टी ने द्वेषपूर्ण भाव से अमृता देवी को उसके पेड़ छोड़ने के बदले रिश्वत में धन मांगा.
उसने उनकी मांग मानने से इनकार कर दिया और कहा कि ये हमारी धार्मिक मान्यता का तिरस्कार व घोर अपमान है. उसने कहा कि इससे अच्छा तो वह हरे पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान दे देगी और इसके साथ ही उद्घोष किया सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण और अमृता के गुरू जांभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले पेड़ से लिपट गई, क्षण भर में उनकी गर्दन काटकर सिर धड़ से अलग कर दिया. फिर तीनों पुत्रियों पेड़ से लिपटी तो उनकी भी गर्दनें काटकर सिर धड़ से अलग कर दिए.
यह खबर जगल में आग की तरह फैल गई. आस-पास के 84 गांवों के लोग आ गए. उन्होनें एक मत से तय कर लिया कि एक पेड़ के एक विश्नोई लिपटकर अपने प्राणों की आहुति देगा. सबसे पहले बुजुर्गों ने प्राणों की आहुति दी. तब मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने बिश्नोइयों को ताना मारा कि ये अवांच्छित बूढ़े लोगों की बलि दे रहे हो. उसके बाद तो ऐसा जलजला उठा कि बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे स्त्री-पुरुष सबमें प्राणों की बलि देने की होड़ मच गई.
बिश्नोई जन पेड़ों से लिपटते गए और प्राणों की आहुति देते गए. आखिर मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को पेड़ों की कटाई रोकनी पड़ी. ये तूफान थमा तब तक कुल 363 बिश्नोईयों 71 महिलाएं और 292 पुरूष ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी. खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गई. यह मंगलवार 21 सितम्बर 1730 का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिए हमेशा याद किया जाएगा.
इस घटना से राजा के मन को गहरा आघात लगा, उन्होंने बिश्नोइयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिए दण्ड का प्रावधान किया. बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमियों में नई प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा.
बिश्नोई समाज आज भी अपने गुरू जांभोजी महाराज की 29 नियमों की सीख पर चलकर राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी के पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है.
उस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गए, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गई. कुछ दिन बाद मंगलवार 21 सितम्बर 1730 ई. भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787 को मंत्री गिरधारी दास भण्डारी लावलश्कर के साथ पूरी तैयारी से सूर्योदय होने से पहले आए, जब पूरा गांव सो रहा था.