इसके बावजूद उन्होंने 1857 की लड़ाई में भारतीयों का नेतृत्व किया. लड़ाई के शुरुआती परिणाम हिंदुस्तानी योद्धाओं के पक्ष में रहे, लेकिन बाद में अंग्रेजों के छल-कपट के चलते प्रथम स्वाधीनता संग्राम का रुख बदल गया और अंग्रेज बगावत को दबाने में कामयाब हो गए. जिसके बाद अंग्रेजों से बचने के लिए बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी.
वैसे शुरुआत में ज़फ़र विद्रोहियों के नेतृत्व के लिए राजी न थे. बीबीसी के लिए लिखे एक लेख में इतिहासकार आरवी स्मिथ लिखते हैं कि बहादुर शाह के नेतृत्व के लिए राजी होने का एक किस्सा है. बहादुर शाह के निजी सचिव जीवन लाल के मुताबिक बहादुर शाह को एक सपना आया था. जिसमें उनके दादा शाह आलम ने उनसे कहा कि 100 साल पहले हुई प्लासी की लड़ाई का बदला लेने का वक्त आ गया है. जिसके बाद बहादुर शाह जफर ने विद्रोह का नेतृत्व करने का फैसला ले लिया.
हालांकि जब बहादुर शाह ने नेतृत्व का फैसला किया, उनकी उम्र 82 साल थी. उन्हें लगातार खांसी आती थी, जिसके चलते वे बहुत कम सो पाते थे. उनकी ऐसी ही हालत में मौत भी हुई थी. इतिहासकार सैयद मेहदी हसन अपनी किताब 'बहादुर शाह ज़फ़र ऐंड द वॉर ऑफ़ 1857 इन डेली' में लिखते हैं कि बहादुर शाह के कर्मचारी अहमद बेग के अनुसार 26 अक्तूबर से ही उनकी तबीयत नासाज़ थी और वो मुश्किल से खाना खा पा रहे थे.
विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बहुत कड़े कदम उठाए और विद्रोह दबाने के लिए दिल्ली आए अंग्रेज लेफ्टिनेंट मेजर हडसन ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया. जिनका बाद में खूनी दरवाजे के पास कत्ल कर दिया गया. बाद में उनके शवों को सड़ने के लिए गुरुद्वारे के पास फेंक दिया गया.
विद्रोह को दबाने के बाद अंग्रेजों ने बहादुर शाह ज़फ़र को सजा देने के लिए देश से निर्वासित कर रंगून (आज यंगून) भेज दिया. जहां उनकी मौत 1862 में बर्मा (अब म्यांमार) की तत्कालीन राजधानी रंगून (अब यांगून) में हो गई थी. इसके बाद उन्हें अनजान किसी जगह दफना दिया गया. लोग कुछ सालों में यह भी भूल गए कि उन्हें कहां दफनाया गया है.
वैसे बहादुरशाह जफर मौत के बाद दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होना चाहते थे. उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी. रंगून भेजे जाने के बाद उनकी शायरी में इसका दर्द साफ दिखाई देता है-कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
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