वर्ष 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में दमन काफी बढ़ गया. असर भारत और यहां के लोगों पर पड़ने लगा, तब कार्रवाई करनी जरूरी हो गई थी. तब पाकिस्तान के शासक थे जनरल याहया खान. वो अमेरिका की आंखों के तारे थे. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन उन्हें पसंद करते थे.
तब अमेरिकी राष्ट्रपति तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बहुत पसंद नहीं करते थे. 1971 में जब ऐसा लगने लगा कि भारत पूर्वी पाकिस्तान में कोई सैन्य कार्रवाई करके पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट देगा, तभी इंदिरा गांधी नवंबर महीने में अमेरिका पहुंचीं. मुलाकात से पहले की शाम राष्ट्रपति निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की बातचीत में इंदिरा के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया गया.
निक्सन ने उन्हें ओल्ड विच कहा तो किसिंजर ने भारतीयों को बास्टर्ड. अगले दिन की मुलाकात में इंदिरा को कड़ी चेतावनी दी जाने वाली थी. मुलाकात की शुरुआत ही गड़बड़ रही. निक्सन ने हावभाव से जैसी शुरूआत की उसका वैसा ही जवाब इंदिरा से मिला. इंदिरा ने पूरी मुलाकात में कुछ ऐसा ठंडा रुख अख्तियार कर लिया, मानो उन्हें निक्सन की कोई परवाह ही नहीं हो.
निक्सन ने चेतावनी दी, अगर भारत ने पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य कार्रवाई की हिम्मत की तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे. भारत को पछताना होगा. किसी और देश के लिए ये चेतावनी पसीने पसीने कर देने वाली होती लेकिन इंदिरा किसी और मिट्टी की बनी थीं. उन्होंने निक्सन के साथ वैसा ही बर्ताव किया जैसा कोई समान पद वाला करता है.
इंदिरा न केवल गर्वीली थीं बल्कि सम्मान से कोई समझौता नहीं करने वाली. अमेरिका दौरे से पहले सितंबर में वह सोवियत संघ भी गई थीं. भारत को सैन्य आपूर्ति के साथ मास्को के राजनीतिक समर्थन की सख्त जरूरत थी. जब वह पहुंची तो पहले दिन प्रधानमंत्री किशीगन से मुलाकात कराई गई. उन्होंने साफ जता दिया कि वह जो बात करने आईं हैं वह देश के असली राष्ट्रप्रमुख ब्रेझनेव से ही करेंगी. अगले दिन ब्रेझनेव से बातचीत हुई. वर्ष 1971 में इंदिरा ने अमेरिका और सोवियत संघ के लिए जैसे पांसे फेंके, वो बेहद नपी-तुली और समझदारी वाली विदेशनीति थी.
खैर अमेरिका से लौटते हुए इंदिरा जी पक्का कर चुकी थीं कि अब करना क्या है. तीन दिन बाद ही दिसंबर के पहले हफ्ते में भारतीय फौजों ने पूर्वी पाकिस्तान में कार्रवाई शुरू कर दी. पाकिस्तानी सेनाओं के पैर उखड़ने लगे. खबर वाशिंगटन पहुंची तो निक्सन बिलबिला गए. उन्हें उम्मीद भी नहीं थी कि उनकी चेतावनी के बाद भी भारत ऐसा करेगा. कुंठित निक्सन ने चीन से संपर्क साधा कि क्या वह भारत के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है, चीन तैयार नहीं हुआ. अब सीधे इंदिरा पर संघर्ष विराम का दबाव डाला गया. दो-टूक जवाब मिला-नहीं ऐसा नहीं हो सकता.
अमेरिका ने अपने सातवें बेडे को हिन्द महासागर में पहुंचने का आदेश दिया तो सोवियत संघ तुरंत सामने आकर खड़ा हो गया. भारत ने संघर्ष विराम तो किया लेकिन 17 दिसंबर को तब जबकि पाकिस्तान की हार के बाद भारतीय फौजों ने ढाका में फ्लैग मार्च किया.
ये ऐसा समय था जब भारतीय फौजें चाहतीं तो पश्चिम में पाकिस्तानी सीमा के अंदर तक जाकर उसके इलाके को हड़प सकती थीं, लेकिन इंदिरा ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने मास्को के जरिए वाशिंगटन को संदेश भिजवाया कि पाकिस्तानी सीमाओं को हड़पने का उनका कोई इरादा नहीं है. उन्हें जो करना था, वो उन्होंने कर दिया.
माना जाता है कि भारत ने सबसे पहले बांग्लादेश को एक देश के रूप में मान्यता दी लेकिन ये सही नहीं है बल्कि ये काम छह दिसंबर को भूटान ने सबसे पहले कर दिया था. भारत ऐसा करने वाला दूसरा देश था. बांग्लादेश बनने के एक महीने के अंदर ही अंदर संयुक्त राष्ट्र के ज्यादातर देशों ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी. इस जीत और सैन्य अभियान ने यकायक इंदिरा और भारत की छवि पूरी दुनिया में बदलकर रख दी.
निक्सन कभी इस घाव को भूल नहीं पाए. याहया खान के हाथ से पाकिस्तान की सत्ता चली गई. उन्हें जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता सौंपनी पड़ी. भुट्टों ने सत्ता में आते ही उनसे सारे अधिकार और पद छीनकर उन्हें नजरबंद कर दिया. इस तरह इंदिरा ने अमेरिका की परवाह किए बगैर दिखा दिया कि अगर दृढइच्छाशक्ति और बेहतर प्लानिंग क्या कुछ नहीं किया जा सकता.