बनारस के गौदोलिया के करीब मिसिर पोखरा में बना काशी लाभ मुक्ति भवन कोरोना के चलते कई महीनों से बंद है. दरअसल पिछले साल जब कोरोना की पहली लहर आई थी, तब पर्याप्त जांच और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं होने से इसे बंद कर दिया गया था. तब से ये अभी बंद है. यानि मोक्ष का ये घर फिलहाल कोरोना के चलते किसी को मोक्ष देने का काम नहीं कर रहा. इसको संचालित करने का काम डालमिया ट्रस्ट दिल्ली द्वारा किया जाता है.
हर साल देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से हिंदू धर्म पर आस्था रखने वाले सैकड़ों लोग यहां आते हैं और अपना आखिरी वक्त बिताते हैं. अंग्रेजों के जमाने में बनी इस धर्मशाला में 12 कमरे हैं. साथ में एक छोटा मंदिर और पुजारी भी हैं. इन कमरों में केवल उन्हीं को जगह मिलती है, जो मौत के एकदम करीब हैं. मौत का इंतजार कर रहा कोई भी व्यक्ति 2 हफ्ते तक यहां के कमरे में रह सकता है.
रोजाना के 75 रुपए के अलावा ज्यादा सामर्थ्य वाले लोगों के लिए गायक मंडली भी है. इसमें स्थानीय गायक हैं जो ईश्वर और मोक्ष का संगीत सुनाते हैं. इससे बीमारों को दर्द में भी आराम मिलता है. ये मोक्ष भवन भी अपने आपमें निराला ही है. माना जाता है कि लोग अपने निधन से पहले मोक्ष की प्रत्याशा में यहां चले आते हैं. ताकि यहां रहकर काशीवास कर सकें. गंगा के दर्शन हों और जब मृत्यु हो तो काशी में रहने के कारण उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो.
तयशुदा वक्त यानी 2 हफ्ते के भीतर आने वाले की मौत न हो तो बीमार को अपना कमरा और मुक्ति भवन का परिसर छोड़ना होता है. इसके बाद आमतौर पर लोग बाहरी धर्मशाला या होटल में ठहर जाते हैं ताकि काशी में ही मौत मिले. कुछ वक्त बाद दोबारा भी मुक्ति भवन में जगह तलाशी जा सकती है लेकिन एक बार रह चुके व्यक्ति को वरीयता नहीं मिलती है.
माना जाता है कि काशी में मरने पर सीधे मोक्ष मिलता है. इसका महत्व एक तरह से मुस्लिमों के हज की तरह है. पुराने वक्त में जब लोग कहा करते, काशी करने जा रहे हैं तो इसका एक मतलब ये भी था कि लौटकर आने की संभावना कम ही है. पहले मुक्ति भवन की तर्ज पर कई भवन हुआ करते थे लेकिन अब वाराणसी के अधिकांश ऐसे भवन कमर्शियल हो चुके हैं और होटल की तरह पैसे चार्ज करते हैं. इन जगहों पर मुक्ति भवन से विपरीत पैसे देकर चाहे जितनी मर्जी रहा जा सकता है.
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