पंडिता रमाबाई 1870 के नागरिक समाज में एक बड़े विस्फोट की तरह मौजूद थीं. वह खासी पढ़ी लिखीं थीं. विद्रोही थीं. पितृ सत्तात्मकता की कठोर आलोचक थीं. पहले तो पंडितों ने उन्हें सरस्वती कहा लेकिन जैसे ही वो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ बोलने लगीं और ईसाई धर्म को अपनाया, वैसे ही विद्रोहिणी बन गईं.
देश की पहली फेमिनस्ट- रमाबाई को देश की पहली फेमिनिस्ट कहा जाता है. वो महाराष्ट्र के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में 23 अप्रैल 1858 में पैदा हुईं. संस्कृत की पढ़ाई की. बचपन में मां-बाप को खोने के बाद वो पूरे देश में घूमती और व्याख्यान देती रहीं. 22 की उम्र तक आते-आते रमा को संस्कृत के बीस हज़ार श्लोक रटे हुए थे. उन्हें कन्नड़, मराठी, बांग्ला और हिब्रू जैसी सात भाषाएं आती थीं.वो अपने समय की एक असाधारण महिला थी. वह एक शिक्षक, विद्वान ,नारीवादी एवं समाज सुधारक थीं.
अंतर जातीय शादी से भूचाल आ गया- 1880 में उन्होंने गैर ब्राह्मण बंगाली वकील विपिन बिहारी से शादी कर ली. ये शादी इसलिए सही नहीं मानी गई, क्योंकि ना केवल ये अंतर जातीय थी बल्कि अंतर क्षेत्रीय भी, जो उस समय के लिहाज से किसी भूचाल की तरह था. इस शादी के दो साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया लेकिन वो अपने पीछे एक छोटी बच्ची छोड़ गए.
विद्रोहिणी बन गईं- ये वो समय भी था, जब वो विद्रोहिणी बन गईं. उन्होंने हिंदू धर्म की कई परंपराओं, मान्यताओं के साथ महिलाओं की स्थिति पर सवाल उठाने शुरू किए. वो तर्कों के साथ उसकी आलोचना करती थीं. उससे रूढ़िवादी तिलमिला गए. ये वो दौर था जब रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का काफी प्रभाव था. वो अक्सर कहती थीं कि भारतीय महिलाओं को ना केवल पढ़ाने लिखाने की जरूत है बल्कि उन्हें टीचर्स और इंजीनियर बनाने की जरूरत है. भारत में ये वो दौर था जब महिलाओं का घर से बाहर भी प्रवेश अच्छा नहीं माना जाता था. (तस्वीर-रामकृष्ण परमहंस)
पूना में बस गईं- पति की मौत के कुछ साल बाद रमा पूना में बस गईं. यहां उन्होंने ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की और लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया. ये संस्था बाल विवाह रोकने के लिए भी काम करती थी. 1882 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में शिक्षा के लिए एक कमीशन बनाया तो रमा ने उसके सामने कई सबूत रखे. उन्होंने लॉर्ड रिपन के सामने रिपोर्ट दी. (सांकेतिक तस्वीर)
इंग्लैंड जाकर ईसाई बन गईं- 1883 में वो इंग्लैंड गईं. वहीं उन्होंने ईसाई धर्म का अध्ययन किया. उन्होंने तभी ईसाई धर्म स्वीकार किया. वो और उनकी छोटी बेटी ने 29 सितंबर 1883 को चर्च ऑफ इंग्लैंड में बपस्तिमा कराया. इसके बाद वो शैक्षणिक कामों में लग गईं. उसी दौरान उन्होंने वहां अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई की. इसके बाद ज़्यादातर लोगों ने रमा की आलोचना की. मगर एक जगह से रमा को खुलकर समर्थन मिला, ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले दंपत्ति ने रमाबाई का खुलकर समर्थन किया.
किताब लिखी- रमा ने अपने ब्रिटेन प्रवास में एक किताब लिखी, ‘द हाई कास्ट हिंदू विमेन’. इस किताब में एक हिंदू महिला होने के बुरे परिणामों की बात की. बाल विवाह, सती प्रथा, जाति और ऐसे तमाम मुद्दों पर लिखा गया था. रमा ने शारदा सदन की मुखिया के तौर पर महाराष्ट्र में काफी काम किया. कर्नाटक के गुलबर्गा में एक स्कूल खोला. तमाम आलोचनाओं के बाद भी वो विधवाओं के उत्थान के लिए काम करती रहीं. (सांकेतिक तस्वीर)
तब हुआ विवेकानंद से टकराव- 1886 में वो अमेरिका गईं. वहां लेक्चर देना शुरू किया. वो वहां कई साल रहीं. इसी दौरान जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में पहुंचे और उन्होंने हिंदू धर्म के महान पक्ष को दिखाते हुए अमेरिका में लेक्चर दिया तो उन्होंने पाया कि रमा बाई की अगुवाई में वहां बहुत सी महिलाएं उनके खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं साथ ही सवाल उठा रही हैं कि अगर उनका धर्म इतना महान है तो उनके देश में महिलाओं की इतनी खराब हालत क्यों है. विवेकानंद के भाषणों में महिलाओं को अनदेखी पर भी सवाल उठाए गए.
विवेकानंद के भाषण पर रमाबाई का रिएक्शन- 1893 में जब विवेकानंद ने शिकागो में ऐतिहासिक भाषण दिया तो रमाबाई ने लिखा, ''मैं अपनी पश्चिम की बहनों से गुज़ारिश करती हूं कि बाहरी खूबसूरती से संतुष्ट न हों. महान दर्शन की बाहरी खूबसूरती, पढ़े-लिखे पुरुषों के बौद्धिक विमर्श और भव्य प्राचीन प्रतीकों के नीचे काली गहरी कोठरिया हैं. इनमें तमाम महिलाओं और नीची जातियों का शोषण चलता रहता है.”
विवेकानंद ने क्या जवाब दिया- इसके कुछ समय बाद विवेकानंद ने अपने एक पत्र में लिखा. “मिसेस बुल, मैं उन स्कैंडल्स के बारे में सुनकर भौंचक्का हूं जिनमें रमाबाई का सर्कल मुझे शामिल कर रहा है. कोई भी आदमी अपनी तरफ से कितना भी कोशिश कर ले मगर कुछ लोग उसके बारे में खराब बोलते ही हैं. शिकागो में मुझे रोज़ कुछ न कुछ ऐसा सुनने को मिलता है. ये औरतें तो ईसाइयों से भी ज़्यादा ईसाई हैं.”
दुनिया भर में तारीफ- रमाबाई के काम को पूरी दुनिया में तारीफ मिली. उनके नाम पर शुक्र ग्रह के एक क्रेटर का नाम रखा गया है. यूरोप के चर्च 5 अप्रैल को उनकी याद में फीस्ट डे के तौर पर मनाते हैं. भारत सरकार ने भी रमाबाई के नाम पर एक डाक टिकट जारी किया है. उनका बनाया पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है. हालांकि रमा बाई को अब भी एक समाज सुधारक के रूप में हिंदुस्तान में वो पहचान नहीं मिली जो उनके समकालीन को मिली. 1992 में रमाबाई का निधन हो गया.
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