चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती आज 63वां जन्मदिन मनाएंगी. मायावतीका जन्मदिन उनकी पार्टी 'जन कल्याणकारी दिवस' के तौर पर मनाती है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मायावती का जन्मदिन पहले लखनऊ पार्टी कार्यालय में मनाया जाएगा फिर मायावती दिल्ली जाएंगी जहां सहयोगी दलों के नेता भी मौजूद रह सकते हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती का जन्मदिन पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए उत्सव की तरह होता है तो वहीं उनके करोड़ों के माला पहनने की विपक्षी दल आलोचना भी करते हैं. कई बार देखा गया है कि मायावती को जन्मदिन के मौके पर कार्यकर्ता करोड़ों के नोटों की माला गूंथकर पहनाते हैं.
यूपी की 4 बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती बनना तो आईएएस चाहती थीं, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें पहले नेता बनाया फिर मुख्यमंत्री. आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन भी चर्चा में हैं. आइए जानते हैं मायावती के राजनीतिक सफर के बारे में, कैसे एक प्रशासनिक सेवा में जाने की चाह रखने वाली लड़की उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की नेता बनी और एसटी/एससी समुदाय के बीच खुद को सबसे बड़े हिमायती के रूप में स्थापित किया.
मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 में दिल्ली के लेडी हार्डिंस अस्पताल में हुआ था. उनके पिता प्रभु दास पोस्ट ऑफिस में क्लर्क और मां रामरती गृहणी थीं. मायावती के छह भाई और दो बहनें हैं. दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में मकान के दो छोटे कमरों में उनका पूरा परिवार रहता था. और यहीं खेलते-कुदते मायावती का बचपन गुजरा. मायावती की मां भले ही अनपढ़ थीं, लेकिन अपने बच्चों की उच्च शिक्षा देना चाहती थीं.
इंद्रपुरी इलाके के प्रतिभा विधालय से मायावती ने शुरुआती पढ़ाई की. बचपन से ही माया का सपना था कलेक्टर बनने का. बीएड करने के प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगीं. वो दिन में बच्चों को पढ़ातीं और रातभर अपनी पढ़ाई करतीं. 1977 का वो दौर था, जब उनके आर्थिक हालातों ने उन्हें एक स्कूल टीचर बना दिया था. उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से एलएलबी भी की.
मायावती के शुरुआती संघर्षों का अंत तब हुआ जब उन्होंने कांशी राम की राह चुनी. मायावती आज जो कुछ भी हैं उसमें कहीं हद तक कांशीराम का हाथ है. दरअसल, बात 80 के दशक की है जब मायावती के प्रतिभा के बारे में कांशीराम जी को पता चला तो वह सीधे मायावती के घर उनसे मिलने पहुंचे. तब दोनों के बीच बातचीत के दौरान कांशीराम को पता चला कि मायावती कलेक्टर बनकर अपने समाज के लोगों की सेवा करना चाहती हैं, तो इस उन्होंन मायावती से कहा कि मैंने तुम्हें मुख्यमंत्री बनाऊंगा और तब तुम्हारे पीछे एक नहीं कई कलेक्टर फाइल लिए तुम्हारे आदेश का इंतजार करेंगे.
कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी. मायावती भी स्कूल टीचर की नौकरी छोड़ बीएसपी में शामिल हो गईं. कांशीराम ने सबसे पहला दांव पंजाब में चलाया और उसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश में कदम रखा, क्योंकि वह समझ चुके थे कि उत्तर प्रदेश में एसटी/एससी प्रत्याशियों की संख्या ज्यादा है और फिर उन्होंने उत्तर प्रदेश में बीएसपी की राजनीतिक जमीन तैयार की. हांलाकि पार्टी गठन के पांच सालों में पार्टी का धीरे-धीरे वोट बैंक तो बढ़ा, लेकिन कोई खासी सफलता नहीं मिली.
साल 1989 में मायावती को बिजनौर विधानसभा सीट से जीत मिली. मायावती के इस जीत ने बीएसपी के लिए संसद के दरवाजे खोल दिए. 1989 के आम चुनाव में बीएसपी को तीन सीटें मिली थी, उत्तर प्रदेश में 10 फीसदी और पंजाब 8.62 फीसदी वोट मिले थे. बीएसपी का कद बढ़ रहा था अब वह एक राजनीतिक पार्टी बनकर उभर रही थी, जो आगामी समय में प्रदेश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाली थी. इस दौरान मायावती पर कांशीराम का जरूरत से ज्यादा भरोसा भी बढ़ गया.
साल 1993 में प्रदेश की राजनीति में एक अद्भुत शुरुआत हुई. दरसअल, इसे समझने के लिए हमें 1992 के दौर को देखना होगा. बाबरी मस्जिद गिरने के बाद केंद्र में बीजेपी की सरकार गिर चुकी थी. प्रदेश में कांग्रेस के एसटी/एससी वोट बैंक पर बीएसपी कब्जा कर चुकी थीं. प्रदेश में बीजेपी को हराने के लिए कांशीराम ने एक बड़ा कदम उठाया. उन्होंने समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया. कांशीराम की सोच, दलित और पिछड़ों की एकजुटता ये नतीजा रहा कि 1993 में इस गठबंधन को जीत मिली. सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बने. और मायावती को दोनों दलों के बीच तालमेल बिठाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी गई.
गेस्ट हाऊस कांड के तीसरे दिन यानी 5 जून 1995 को बीजेपी के सहयोग से मायावती ने पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. और कांशीराम ने वो अपना सपना पूरा कर किया जो कभी उन्होंने मायावती को दिखाया था. इस समय मायावती की उम्र महज 39 साल की थी. यह एक ऐतिहासिक पल जब था जब देश की प्रथम एसटी/एससी महिला मुख्यमंत्री बनीं थी. हांलाकि यह सरकार महज चार महीने चली. इसके बाद मायावती 1997 और 2002 में फिर से बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बनीं.
जैसे-जैसे मायावती का कद पार्टी और प्रदेश की राजनीति में बढ़ रहा था वैसे-वैसे कांशीराम वक्त के साए में कहीं पीछे रह गए. उनका स्वास्थ्य गिरने लगा. लगातार बीमार रहने के चलते उन्होंने साल 2001 में मायावती को अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर दिया. 6 अक्टूबर 2006 को कांशीराम का निधन हुआ और मायावती का दबदबा राजनीति में बढ़ने लगा.
साल 2007 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे. पार्टी जीत के लिए रोडमैप तैयार कर रही थी. मायावती ने देखा कि वह अकेले एसटी/एससी-मुस्लिम वोटों के बलबूते नहीं जीत पाएंगी. इसलिए उन्होंने अपने गुरु कांशीराम के पुराने फंडे को अपनाया. और पार्टी की रणनीति को सर्वसमाज के लिए तैयार किया. जिसका नतीजा ये हुआ कि प्रदेश में पार्टी को 2007 के विधानसभा में 206 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला. हांलाकि मायावती का यह कार्यकाल उनके जुड़े द्वारा विकास कार्यों के अलावा ताज कॉरिडोर घोटाला, एनएसआरएम घोटाला, आय से अधिक संपत्ति केस और अपनी मूर्ति बनाने को लेकर काफी विवादों में रहा.
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