मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी का जन्म 8 मार्च 1921 को लुधियाना में हुआ था. साहिर का असली नाम अब्दुल हई था उनके मां और पिता में नहीं बनती थी. दोनों साहिर के जन्म के बाद ही अलग रहने लगे थे. बचपन से ही प्रेम के अभाव ने कच्ची उम्र में ही साहिर को शायरी और नज़्मों की ओर मोड़ दिया.
साहिर की पहली किताब तल्खियां महज 24 साल की उम्र में आ गई थी और शायर के तौर कुछ कामयाबी उन्हें पहली ही किताब से हासिल हो गई. लेकिन उन्हें सही मायनों में शोहरत मिली फिल्मों के लिए लिखे अपने गीतों से. 50 के दशक में साहिर ने फिल्मों को अपना लिया.
मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम और साहिर के प्यार के किस्से भी बहुत चर्चित रहे हैं. अमृता प्रीतम अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में खुलकर अपने संबंधों का जिक्र करती हैं.
विभाजन के बाद साहिर पाकिस्तान चले गए. नामी फ़िल्म निर्देशक और उपन्यासकार ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उनके नाम इंडिया वीकली पत्रिका में एक खुला पत्र लिखा. अब्बास अपनी आत्मकथा आई एम नॉट एन आईलैंड में लिखते हैं, मैंने साहिर से अपील की कि तुम वापस भारत लौट आओ. मैंने उन्हें याद दिलाया कि जब तक तुम अपना नाम नहीं बदलते, तुम भारतीय शायर ही कहलाओगे. हाँ ये बात अलग है कि पाकिस्तान भारत पर हमला कर लुधियाना पर क़ब्ज़ा कर ले.
अब्बास ने लिखा है, मुझे ख़ासा आश्चर्य हुआ जब इस पत्रिका की कुछ प्रतियां लाहौर पहुंच गईं और साहिर ने मेरा पत्र पढ़ा. मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा जब साहिर ने मेरी बात मानी और अपनी बूढ़ी मां के साथ भारत वापस आ गए और न सिर्फ़ उर्दू अदब बल्कि फ़िल्मी दुनिया में काफ़ी नाम कमाया.
साहिर ने बेहतरीन गीत लिखे. वह दौर ही साहिर का था. साहिर ने बाकायदा ऐलान कर रखा था कि अगर कोई गाना चलता है तो उसमें उनके गीत की भूमिका, संगीत और गायक से कहीं भी कम नहीं है लिहाजा प्रोड्यूसर उन्हें म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर से ज्यादा रकम अदा करें. फिर भले ये रकम उन दोनों के मेहनताने से 1 रुपया ही ज्यादा क्यों न हो!
जब साहिर की ग़ज़ल ताजमहल प्रकाशित हुई तो कुछ दक्षिणपंथी उर्दू अख़बारों ने साहिर की आलोचना भी की. उनका कहना था, एक नास्तिक शख़्स ने बिना वजह महान सम्राट शाहजहां की बेइज़्जती की है. दरअसल ग़ज़ल का एक शेर था-
ये चमनज़ार, ये जमुना का किनारा, ये महल ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक़
एक शहनशाह ने दौलत का सहारा ले कर हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
सबसे दिलचस्प ये कि ताजमहल नाम से मशहूर नज्म तो साहिर ने लिख दी लेकिन वो कभी आगरा नहीं गए थे. साहिर ने इसके जवाब में कहा था कि मुझे मार्क्स की बातें याद हैं और आगरा जाने की जरूरत नहीं, मेरा भूगोल दुरुस्त है.
साहिर ने उस वक्त प्यासा फिल्म का वो गाना लिखा था जिससे सुनकर सरकार तिलमिला उठी थी साहिर ने लिखा था, जिन्हें नाज है, हिंद पर वो कहां हैं... गीत में पूछें गए इस सवाल की वजह से सरकार ने ऑल इंडिया रेडियो पर यह गीत बैन करवा दिया था. आपकों बता दे कि उस वक्त नेहरु की सरकार थी और 1957 का साल था. ऐसा उस दशक में हुआ जिसे आज भी सबसे ज्यादा सहिष्णु माना जाता है.