संपूरन सिंह कालरा 'गुलजार' की ग़ज़ल और त्रिवेणी

  • December 17, 2022, 4:56 PM

Podcast: गजल, नज्म और कविता की तरह ही हाल के वर्षों में एक नई विधा के तौर पर 'त्रिवेणी' स्थापित हुई हैं. तीन पंक्तियों वाली इस त्रिवेणी विधा के सूत्रपात का श्रेय गुलजार को दिया जाता है. पॉडकास्ट में आज सुनें गीतकार और गजलगो गुलज़ार की चुनिंदा रचनाएं.



न्यूज18 हिंदी के इस स्पेशल पॉडकास्ट में मैं पूजा प्रसाद आपका स्वागत करती हूं. स्वीकार करें मेरा नमस्कार. आज के पॉडकास्ट में मैं आपको मिलवाने जा रही हूं एक ऐसे गीतकार और गजलगो से जिनकी लिखे से हमारे दिन-रात गुलजार होते रहे हैं. ढेर सारी फिल्मों के लिए इन्होंने यादगार गीत लिखे, अविस्मरणीय फिल्में भी बनाईं. इस रचनाकार का नाम है समपूरन सिंह कालरा.

क्या हुआ? चौंक गए न आप? शायद आपको लगा हो कि मैं गुलजार की नज्मे और गजलें लेकर आई हूं और गुलजार की रचना से ही आपको रू-ब-रू कराने जा रही होऊं. तो बता दूं आपको कि आपका अंदाजा बिल्कुल सही था, मेरे बोलने का अंदाज ही थोड़ा भटकाऊ था. जी हां दोस्तो, समपूरन सिंह कालरा ही अब के गुलजार हैं. वैसे, एक सच तो यह है कि गुलज़ार को हममें से अधिकतर लोग महज फिल्मी गीतकार ही मानते रहे हैं. हां, इसमें यह जरूर है कि इन फिल्मी गीतों में भी हम उनके रेंज के मुरीद रहे हैं. चाहे जै हो जैसा गीत हो या बीड़ी जलइले पिया… इतनी रेंज सिर्फ गुलजार के पास ही हो सकती है. लेकिन फिल्मी गीतों से इतर भी गुलजार बेहद संवेदनशील रचनाकार हैं. ढेरों संकलन उनके नाम हैं. अलग-अलग भाषाओं में इनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ है.

लगभग 27 बरस पहले उनका एक संग्रह आया था ‘चांद पुखराज का’. इसी संग्रह की एक गजल का पाठ कर रही हूं. गौर फरमाइएगा

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसाँ उतारता है कोई

दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म
जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई

आईना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पेड़ पर पक गया है फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई

गुलजार के इन पांचों शेर में आदमी के भीतर का सन्नाटा बोलता है, उसका एकाकीपन बोलता है. जाहिर है इस एकाकीपन में पाठक हों या श्रोता डूबते जाते हैं. पेश है ‘चांद पुखराज का’ संग्रह से ही उनकी एक और रचना.

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा

अपने साए से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा

रात भर बातें करते हैं तारे
रात काटे कोई किधर तन्हा

डूबने वाले पार जा उतरे
नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हम ने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा

कभी-कभी तन्हाई भी रुमानियत से भर देती है. और यही तन्हाई जब गुलजार की कलम से निकलती है तो आह सी निकलती है. वैसे एक सच यह भी है कि गुलजार का रचा सचमुच इतिहास रच जाता है. आपको ध्यान होगा कि गजल, नज्म और कविता की तरह ही हाल के वर्षों में एक नई विधा के तौर पर ‘त्रिवेणी’ स्थापित हुई हैं. त्रिवेणियों की खासियत होती है कि उसमें महज तीन पंक्तियां ही होती हैं. खास बात यह भी है कि त्रिवेणी विधा के सूत्रपात का श्रेय गुलजार को ही दिया जाता है. तो ऐसे में बेहतर होगा कि गुलजार की त्रिवेणियों का भी पाठ किया जाए. तो सुनिए अब गुलजार की कुछ त्रिवेणियां

1.
मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे

2.
सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।

3.
सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।

4.
शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को

तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?

5.
ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी

खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!

6.
लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?

7.
आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!

चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा

8.
पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं
घर जाने का वक़्त हुआ है,पाँच बजे हैं

सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!

9.
बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख़्वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।

थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख़्वाहिशें मुझ से।

10.
तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!

11.
कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।

12.
वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं.

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गुलजार की छोटी-छोटी कई त्रिवेणियां सुनने के बाद ‘ये दिल मांगे मोर’ टाइप की आवाज भीतर से उठने लगती है. गुलजार को जितनी बार भी पढ़ा जाए, या उनके गीत जितने बार भी सुने जाएं, हर बार कोई न कोई नया अर्थ खुलता जाता है. ये अर्थ कभी उदास करते हैं, कभी प्रफुल्लित और कभी तो विस्मित. तो उदासी, खुशी और विस्मय के बीच आज आपको छोड़कर विदा चाहती हूं दोस्तो. फिर मिलूंगी अगली बार किसी और रचनाकार के साथ. तब तक के लिए पूजा को दें विदा. नमस्कार