रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
एक दीवाना मुसाफ़िर है मिरी आँखों में
वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है
अपनी ताबीर के चक्कर में मिरा जागता ख़्वाब
रोज़ सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
नमस्कार दोस्तो, न्यूज18 के हिन्दी के स्पेशल पॉडकास्ट में आपका स्वागत है. मैं पूजा प्रसाद आज आपके लिए लेकर आई हूं हमारे अपने मशूहर ग़ज़लगो राहत इंदौरी साहब के कुछ किस्से और कुछ नग्में. उम्मीद है हमारे साथ आपका यह सफर पुरसुकूं गुजरेगा. तो दोस्तो देर न करते हुए शुरुआत करते हैं एक बेहतरीन वाकये से जो खुद राहत साहब ने एक कार्यक्रम में शेयर किया था.
राहत इंदौरी साहब ने एक कार्यक्रम में बताया कि कैसे एक शख्स के कुछ कहन के बाद वह एक रात करवटों में परेशां काटते रहे. उन्होंने बताया कि सारी जिन्दगी जमीन की खाक छानते हुए गुजारी लेकिन एक रोज़ उन्हें किसी ने कहा कि वह जिहादी हैं! यह सुनकर वह इस कदर बेचैन हुए कि उस पूरी रात सो न पाए, सोचते रहे कि यार मैं जिहादी कहां से हूं… सवेरे होते होते अज़ान की आवाज़ उनके कानों में पड़ी. वह बताते हैं- मैंने उसी तरह इशारा किया और पूछा कि क्या हूं मैं जिहादी? तब ज़ेहन से यही आवाज आई कि जिहादी-विहादी तो नहीं हो, अलबत्ता थोड़ा अलग जरूर हो.
तो इसी के साथ इसी से जुड़ा कुछ उनका यह शेर सुनिए-
मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिन्दोस्तां लिख देना
तो ऐसे थे हमारे अपने राहत इंदौरी. जब वह कहते हैं- ना हमसफ़र ना किसी हमनशीं से निकलेगा, हमारे पांव का कांटा हमीं से निकलेगा- तो हम सब अपने पैरों के उन कांटों को महसूस कर सकते हैं जिन्हें या तो कभी करोंच के निकाल चुके हैं या जो चुभता है.. दुखता है लेकिन हमें बताता है कि निकलेगा तो बॉस अपने ही कर्मों से, कोशिशों से. तो खैर, कोशिशों की बात करें तो राहत इंदौरी की जिन्दगी अपने आप में कोशिशों का एक काव्य ही तो है. बताते हैं 10 साल से कम की उम्र में उन्हें काम करना शुरू करना पड़ा. बताते हैं कि एक साइन-आर्टिस्ट के तौर पर उन्हें काम करना पड़ा. उस दौर में परिवार की माली हालत बेहद खराब थी…वैसे उन्हें चित्रकारी में रुचि भी थी और उन्होंने बाद में इसमें भी नाम भी कमाया. कहते हैं कि एक दौर में राहत इंदौरी की चित्रकारी के मुरीद ग्राहकों को उनके बनाए हुए बोर्ड्स के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता. उनका लिखा- कहा जहां दूसरों को हौसले देता रहा, वहीं प्यार भरी थपकी का काम भी करता रहा. उनके कहन का अंदाज भी ऐसा कि लगता हमसे बात कर रहे हैं. सामाजिक, राजनीतिक, निजी.. जीवन के हर कोण पर उन्होंने बेधड़क होकर लिखा.
आइए सुनते हैं उनकी एक रुमानियत से लबरेज एक ग़ज़ल
सूरज, सितारे चाँद मेरे साथ में रहे
जब तक तुम्हारे हाथ मेरे हाथ में रहे
साँसों की तरह साथ रहे सारी ज़िंदगी
तुम ख़्वाब से गए तो ख़्यालात में रहे
हर बूँद तीर बन के उतरती है रूह में
तन्हा मेरा तरह कोई बरसात में रहे
हर रंग हर मिज़ाज में पाया है आपको
मौसम तमाम आपकी ख़िदमत में रहे
शाखों से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे के औक़ात में रहे
राहत इंदौरी का जन्म मध्य प्रदेश के इंदौर में 1 जनवरी 1950 के दिन हुआ था. पिता रफतुल्लाह कुरैशी और मां मकबूल उन निसा बेगम ने उनका नाम राहत कुरैशी रखा था. बताया जाता है कि स्कूल और कॉलेज में वह फुटबॉल और हॉकी टीम के कैप्टन थे. आगे चलकर उन्होंने उर्दू में एमए और ‘उर्दू मुशायरा’ शीर्षक से पीएचडी की. करीब 16 साल तक तो इंदौर यूनिवर्सिटी में उर्दू पढ़ाते रहे. क्या देश और क्या विदेश दसियों साल तक वह लोगों के दिलों में अपने मुशायरों के जरिए पहुंचते रहे.
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उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में उनकी कविता-बुलाती है मगर जाने का नहीं- सोशल मीडिया पर जबरदस्त वायरल हो गई थी. करीब दर्जन भर बॉलीवुड फिल्मों के लिए उन्होंने गीत लिखे. फिल्म घातक का मशहूर गाना कोई जाए तो ले आए, इश्क फिल्म का गाना नींद चुराई मेरी तुमने ओ सनम और मुन्ना भाई एमबीबीएस के लिए भी उन्होंने गीत लिखे.
11 अगस्त 2020 के दिन राहत इंदौरी हमें छोड़ कर चले गए. कोरोना से संक्रमित थे और फिर हार्ट अटैक भी आन पड़ा. लेकिन अपने पीछे वह छोड़ गए हैं अनगिनत शेर जिनसे हम जब भी रूबरू होते हैं, हमें राहत मिलती है… चलते चलते आइए सुनते हैं इस मस्त मलंदर शायर की नज़्म जो कहती है कि जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है..
लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूँ हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूँ हैं
मय-कदा ज़र्फ़ के मेआ’र का पैमाना है
ख़ाली शीशों की तरह लोग उछलते क्यूँ हैं
मोड़ होता है जवानी का सँभलने के लिए
और सब लोग यहीं आ के फिसलते क्यूँ हैं
नींद से मेरा तअल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मिरी छत पे टहलते क्यूँ हैं
मैं न जुगनू हूँ दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रौशनी वाले मिरे नाम से जलते क्यूँ हैं
उम्मीद है राहत साहब के साथ शायरी का यह सफर आपको भाया होगा. फिलहाल नए सफर की तलाश में मैं विदा लेती हूं एक बार फिर से, दोबारा मिलूंगी आपसे जल्द ही एक और रचनाकार के साथ. शुभकामना, नमस्कार…