उत्पल दत्त: विद्रोही रंगकर्मी जिनके नाटकों के दर्शकों को भी पीटा गया
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Utpal Dutt Death Anniversary: उत्पल दत्त ने बताया था कि उनका नाट्य समूह ‘किम्लिश’ नाटक की रिहर्सल कर रहा था और बदमाशों ने निर्देशक के ऊपर खौलता हुआ पानी डाल दिया. उन्होंने रिहर्सल रूम को जला दिया. लेकिन उत्पल दत्त ने अपना रंगकर्म कभी बंद नहीं किया. यहां तक कि अपनी मृत्यु के दिन भी वे उस शाम होने वाली रिहर्सल के लिए नोट्स तैयार कर रहे थे.

सवाल हो कि हिंदी फिल्म ‘गोलमाल’, शौकीन, ‘नरम गरम’, ‘अंगूर’, ‘बात बन जाए’ फिल्मों में क्या समानता है तो एक ही जवाब होगा उत्पल दत्त की भूमिका. संवाद अदायगी का उनका खास अंदाज, कॉमेडी की टाइमिंग और संवाद के अनुसार फैलती-सिकुड़ती आंखें, चेहरे के भाव और देर तक गूंजता ठहाका. यह सब उत्पल दत्त के अदाकारी की कुछ विशेषताएं है. वे विशेषताएं जिनके कारण उनकी छोटी सी भूमिका भी दर्शकों को याद रह जाती है. फिल्मों का यह हंसोड़ कलाकार असल में रंगमंच का विद्रोही किरदार है. ऐसा रंगकर्मी जिसने नाटक को विरोध का साधन बनाया. बंगाल के लोक नृत्य ‘जात्रा’ के जरिए उन्होंने गांव-गांव जा कर सत्ता को हिला दिया. वे ऐसे एक्टिविस्ट रंगकर्मी थे जिन्हें जेल में भेजा गया, जिनके नाटकों के कलाकारों को ही नहीं बल्कि दर्शकों को भी पीटा गया, सेट जला दिए गए लेकिन उनका रंगकर्म नहीं रूका. अंतिम समय में भी वे नाटक के रिहर्सल पर काम कर रहे थे.
नाटककार, अभिनेता, रंग निर्देशक और लोक नाट्यकर्मी उत्पल दत्त का जन्म 29 मार्च 1929 को हुआ था. 19 अगस्त 1993 को जिंदगी के रंगमंच से उनकी विदाई हो गई. अभिनय की दुनिया में आने के पहले उत्पल दत्त कोलकाता के स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक हुआ करते थे. वे शौकिया रंगमंच किया करते थे. विलियम शेक्सपियर के नाटकों ‘ओथेलो’, ‘रिचर्ड तृतीय’ नाटकों में अभिनय को देख कर जेनिफिर केंडेल के केंडेल दम्पत्ति ने अपने मूविंग थियेटर ग्रुप ‘शेक्सपियराना थियेटर कंपनी’ में शामिल होने का प्रस्ताव दिया. उत्पल दत्त ने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. 1947 से लेकर 1949 और फिर 1953-54 के दौरान उन्होंने इस थियेटर कंपनी के जरिए शेक्सपियर के नाटकों का अलग-अलग शहरों में मंचन किया. केंडेल दम्पत्ति के भारत से जाने के बाद उत्पल दत्त ने खुद का एक नाट्य समूह ‘लिटल थियेटर ग्रुप’ गठित किया. बाद में वे इप्टा यानी ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन’ से जुड़ गए.
मशहूर फिल्मकार और लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास की 1969 में आई फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ में वे पहली बार बड़े पर्दे पर दिखाई दिए. 1969 में फिल्मकार मृणाल सेन ने ‘भुवन सोम’ में उन्हें मुख्य किरदार दिया. मृणाल सेन की इस पहली हिंदी फिल्म में उत्पल दत्त के अभिनय को बेहद सराहा गया जिसके लिए उन्हें वर्ष 1970 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों ने उनकी हास्य कलाकार के रूप में पहचान बना दी. फिल्म ‘गोलमाल’, ‘नरम गरम’ और ‘रंग बिरंगी’ के लिए उत्पल दत्त को कॉमेडी का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. रंगकर्म में अतुलनीय योगदान के लिए 1990 में वे ‘संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप’ से सम्मानित किए गए. सरकार ने दीर्घ कला साधना का सम्मान करते हुए उनकी स्मृति मे डाक टिकट जारी किया था.
उत्पल दत्त मार्क्सवादी थे और उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता को खुल कर स्वीकार किया. वे कहते थे कि मैं तटस्थ नहीं हूं. पक्षधर हूं. मैं राजनीतिक संघर्ष में विश्वास करता हूं. जिस दिन मैं राजनीतिक संघर्ष में हिस्सा लेना बंद कर दूंगा, मैं एक कलाकार के रूप में भी मर जाऊंगा. उत्पल दत्त ऐसे रंगकर्मी थे जिन्होंने लोक नाट्य, रंगमंच, और फिल्म जैसे रंगकर्म के हर माध्यम का प्रयोग किया. 1968 से 1972 के बीच उन्होंने 17 जात्रा नाटक का लेखन और निर्देशन किया. उनका पहला जात्रा ‘राइफल’ था, जिसका लेखन और निर्देशन उन्होंने ही किया था. इस लोक कला के माध्यम से वे गांव-गांव तक पहुंचे जनता से सीधे जुड़े. इसी प्रभाव के मद्देनजर उन्होंने ‘विवेक जात्रा समाज’ संगठन का गठन कर जात्रा प्रस्तुतियां दीं.
मुंबई के 1946 के नौसैनिक विद्रोह पर केंद्रित उनका नाटक ‘कल्लोल’ 1965 में खूब चर्चित हुआ था. उनका यह नाटक पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार को हुकूमत की टेड़ी निगाह हुई और साल 1965 में उत्पल दत्त को कई महीनों के लिए जेल जाना पड़ा. 1967 के बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सरकार हार गई और पहली बार बंगाल में वाम दलों की गठबंधन सरकार बनीं. आकलन है कि कांग्रेस की सत्ता जाने की एक वजह उत्पल दत्त की गिरफ्तारी भी थी. वामपंथी सरकार अधिक चल नहीं पाईं. 1968 में सरकार ने उत्पल दत्त को एक बार फिर तब गिरफ्तार किया जब वे फिल्म ‘द गुरु’ की शूटिंग कर रहे थे. देश में जब इमरजेंसी लगी तो उत्पल दत्त फिर अपने नाटकों के साथ विरोध में उतर आए. उन्होंने तीन नाटक ‘बैरीकेड’, ‘सिटी ऑफ नाइटमेयर्स’, ‘इंटर द किंग’ लिखे. इन तीनों नाटकों को प्रतिबंधित किया गया था. फिर भी नाटक खेले गए और दर्शकों ने इन्हें पसंद किया. जाहिर है, सरकार के दमन और गिरफ्तारियों से उत्पल कभी नहीं घबराए. जे़ल से वापस आकर वे फिर रंगकर्म में लग जाते थे.
1970 के दशक की शुरुआत में लिखा गया नाटक ‘बैरिकेड’ हमेशा प्रासंगिक रहेगा. नाटक ‘बैरिकेड’ जर्मनी के नाजी अधिग्रहण की कहानी कहता है, लेकिन वास्तव में यह आपातकाल पर तंज की तरह था. थिएटर ‘विरोध की आवाज’ कहने वाले उत्पल दत्त का मानना था कि थिएटर को सरकार के गलत कामों की आलोचना करनी चाहिए, जनता के बीच व्यापक बहस छेड़नी चाहिए. ऐसा करने पर उन्हें खासा परेशान किया गया. उनके नाटक ‘बैरिकेड’ के लिए मंच पर उन पर पांच बार हमला किया गया, ‘दुशापनेर नगरी’ के लिए उन पर 1974 में हमला किया गया और अभिनेताओं की पिटाई की गई् सेट जला दिए गए. यहां तक कि दर्शकों को भी पीटा गया. एक इंटरव्यू में उत्पल दत्त ने बताया था कि उनका नाट्य समूह ‘किम्लिश’ नाटक की रिहर्सल कर रहा था और बदमाशों ने निर्देशक के ऊपर खौलता हुआ पानी डाल दिया. उन्होंने रिहर्सल रूम को जला दिया. लेकिन उत्पल दत्त ने अपना रंगकर्म कभी बंद नहीं किया. यहां तक कि अपनी मृत्यु के दिन भी वे उस शाम होने वाली रिहर्सल के लिए नोट्स तैयार कर रहे थे. इसलिए अब जब किसी फिल्म में उत्पल दत्त को हास्य कलाकार के रूप में देखें तो हंसोड़ किरदार से आगे असल जीवन में विचार के लिए प्रतिबद्ध एक रंगकर्मी के रूप में जरूर याद करें.
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पंकज शुक्लापत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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