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कैसे रतन टाटा ने बनाई भारत की पहली स्वदेशी कार इंडिका, देश की अपनी कार, तब कोई मानने को तैयार नहीं था कि ये हो पाएगा

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Tata Car Success Story: भारत में जितनी कारें आईं, वो सब विदेशी तकनीक वाली थीं, रतन टाटा ने पहली बार देश में स्वदेशी कार बनाने का प्रोजेक्ट शुरू किया, अब तो खैर इसमें झंडा ही गाड़ दिया है.

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कैसे रतन टाटा ने बनाई भारत की पहली स्वदेशी कार इंडिका, देश की अपनी कार
देश जब आजाद हुआ तो 50 के दशक में यहां एंबेसडर और फिएट जैसी कारें बननी शुरू हुईं. ये सभी विदेशी तकनीक वाली कारें थीं. फिर देश में बहुत सी विदेशी ब्रांड वाली कारें बनना शुरू हुईं. ऐसे में रतन टाटा ने जब 90 के दशक में फैसला किया अब उनकी कंपनी विशुद्ध स्वदेशी तकनीक से भारत की अपनी कार बनाएगी तो लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया. खुद टाटा ग्रुप में इस पर एकराय नहीं थी. रतन टाटा डटे रहे. उन्होंने इंडिका के तौर पर देश की पहली स्वदेशी कार बनाकर दिखा दी, जो हिट साबित हुई. अब तो टाटा की कारें और एसयूवी विदेशी ब्रांड्स पर भारी पड़ते हुए देश में झंडा गाड़ रही हैं.

कारें हमेशा देशभक्ति और गर्व का प्रतीक रही हैं.वो दुनियाभर के सभी देशों में तेज़ आर्थिक विकास का इंजन भी रही हैं. टोयोटा, रोल्स रॉयस, मर्सिडीज-बेन्ज़, फोर्ड, फिएट और हुंडई जैसे ब्रांड्स अपने-अपने देशों के ध्वजवाहक रहे हैं. अब भारत में बेशक ये नाम टाटा का का लिया जा सकता है. जो विशुद्ध भारतीय तकनीक से कार और यात्री वाहनों की पूरी सीरीज बना चुकी हैं. जो सुपरहिट हैं. इन्हें बाहर भी निर्यात किया जाता है.

टाटा में सीनियर पोजिशन पर काम कर चुके हरीश भट्ट ने “टाटा स्टोरीज” के नाम से हिट बुक लिखी है. इसमें एक अध्याय में बताया गया कि रतन टाटा ने कैसे भारत के बाजार में तमाम प्रतिकूल हालात और चुनौतियां का सामना करते हुए इंडिका कार बाजार में उतारकर नई कहानी लिख दी.
इंडिका भारत की पहली ऐसी स्वदेशी कार थी, जिसकी डिजाइन, तकनीक और सबकुछ भारत में ही तैयार किया गया था. इसे 1998 में लांच किया गया.

1990 के दशक की शुरुआत तक भारत स्पेसक्राफ्ट और मिसाइल लांच कर चुका था लेकिन भारत के पास एक ऐसी कार नहीं थी, जिसे अपनी कार कहा जा सके. अपनी का मतलब एक ऐसी कार जो भारत में ही डिज़ाइन, विकसित और निर्मित हुई हो. ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक था कि क्या भारत के पास कभी ऐसी कार होगी जो उसकी अपनी राष्ट्रीय अपेक्षाओं और गौरव के अनुरूप हो ?
रतन टाटा ने बाद में कहा, ‘मुझे पक्का यकीन था कि हमारे इंजीनियर अंतरिक्ष में रॉकेट भेज सकते हैं, तो अपनी कार भी बना सकते हैं. हमने यह चुनौती स्वीकार की, हम बाहर गए. जहां कहीं भी ज़रूरी लगा, विशेषज्ञता हासिल की. इस कार में जो भी था, हमारा था. इसलिए, मेरे लिए इंडिका एक राष्ट्रीय उपलब्धि की महत्वपूर्ण भावना भी थी.’
1995 में इंडिका की योजना पेश की गई
1995 में रतन टाटा, जो उस समय टाटा ग्रुप और टाटा मोटर्स के चेयरमैन थे, उन्हें लगा कि देश की अपनी एक ऐसी कार होनी चाहिए, जो खुद स्वदेशी तकनीक से बने और इंडियन ब्रांड के तौर पर स्थापित हो. जिससे विदेशों में भारत की भी धाक जम सके. खुद हमें भी उस पर गर्व हो., उन्होंने कहा, ‘हम ज़ेन के साइज़ की, अंदर से अंबेसडर के आकार वाली, मारुति 800 के कीमत की और डीजल की लागत से चलने वाली कार लेकर आएंगे.’
किसी को यकीन नहीं था कि भारत अपनी कार बना सकता है
जब रतन टाटा ने ये बात कही तो इस पर तमाम संशय खड़ा हो गया. आलोचना करने वालों का दावा था कि कभी भारत भी अपनी कोई कार बना सकता है. इस बात पर विश्वास करने से ही इनकार कर दिया कि एक भारतीय कार भी होगी. लेकिन रतन टाटा डटे रहे. वह और उनकी टीम टाटा इंडिका के आइडिया को हकीकत में बदलने में जुट गई. कार का नाम भी इंडिया से जोड़कर इंडिका रखा गया.
90 के दशक में जब इंडिका कार को टाटा ने बाजार में उतारा. तब इसकी पंच लाइन थी – मोर कार पर कार यानि एक कार में ज्यादा कार. इस कार को काफी धूमधड़ाके के साथ बाजार में उतारा गया था.
डिजाइन और ट्रांसमिशन सिस्टम इन-हाउस बना
अगर इंडिका को वर्ल्ड-क्लास बनाना था, तो इसका डिज़ाइन कुछ ऐसा होना चाहिए था जो दूसरी कारों के डिज़ाइन के टक्कर का हो. टाटा मोटर्स पुणे के इंजीनियरिंग रिसर्च सेंटर के कुशल और उत्साही इंजीनियरों ने इटली के तुरीन स्थित डिज़ाइन हाउस (I.D.E.A.) के साथ मिलकर इस रोमांचक चुनौती को स्वीकार किया. ट्रांसमिशन सिस्टम पूरी तरह से इन-हाउस विकसित किया गया.
तब कैसे रिएक्शन मिले
आखिरकार टाटा इंडिका के डिज़ाइन को सबके सामने लाया गया. जो प्रतिक्रियाएं मिलीं, वे उत्साह से भरी हुई थीं. सभी ने माना कि यह अपने समय से कहीं आगे की कार है. उस समय ये बाज़ार में मौजूद अन्य कारों से बिल्कुल अलग थी. इसमें अंतर्राष्ट्रीय अपील थी. इसमें स्टाइल भी थी.
जब इंडिका कार बाजार में उतरी तो इसमें कई कमियां थीं. विदेशी कार कंपनियों ने तो इसे कमोवेश खारिज ही कर दिया था लेकिन रतन टाटा ने कमर कसी और इसकी सारी कमियां दूर करते हुए इसे कहीं अधिक खासियतों के साथ कुछ साल बाद नए मॉडल वी2 के साथ उतारा. तब ये सुपर हिट साबित हुई. (विकीकामंस)
नया प्लांट खड़ा करना बहुत महंगा था, तब क्या किया गया
अब बड़ा सवाल था कि इसके लिए मैन्युफैक्चरिंग फैसिलिटी कैसे जुटाई जाए. एक नई मैन्यु फैक्चरिंग यूनिट को बनाने में दो अरब डॉलर से अधिक का खर्च हो सकता था. यह राशि इतनी बड़ी थी कि पूरी परियोजना को वहीं बंद करा देती. यहां भी रतन टाटा और टाटा मोटर्स की टीम ने एक नया और अलग रास्ता चुना. उन्हें ऑस्ट्रेलिया में एक कार कंपनी के एक अनुपयोगी प्लांट के बारे में बता चला. जिसे नए प्लांट की कुल लागत के पांचवें हिस्से पर बिक्री के लिए बेचा जा रहा था. टाटा ने इसे खरीद लिया.
टाटा मोटर्स के इंजीनियर्स ने बहुत सावधानी से इस प्लांट के हिस्सों को अलग-अलग किया. फिर उसे सात समंदर पार लाकर पुणे में दोबारा जोड़ा. इस बड़े और मुश्किल काम को पूरा करने में छह महीने का समय लगा.
रतन टाटा की वो निगाह, जिसने ये भी कराया..
टाटा इंडिका का निर्माण न केवल तकनीकी सूक्ष्मता से हुआ बल्कि इसके उत्पादन में बहुत ही मेहनत और गर्व की अनुभूति भी शामिल थी. रतन टाटा अक्सर इंडिका के मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स का दौरा किया करते थे. ऐसे ही एक दौरे के दौरान उन्होंने देखा कि ऑपरेटर कार के पिछले स्टूट को हाथों से लगा रहे थे. एक स्टूट के लिए कर्मचारी को दो बार पूरी तरह झुकना पड़ता था. इस तरह दिन में 300 कारों के लिए उन्हें 600 बार घुटनों के बल झुकना पड़ता था. रतन टाटा ने तुरंत अपने मैनेजर्स को बुलाया.
उन्होंने कहा, ‘हम अपने कर्मचारियों से पूरे जीवन यह काम कराने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? निश्चित रूप से ऐसा करने से उनकी सेहत को नुकसान होगा. प्राथमिकता से इस समस्या का एक स्वचालित समाधान तलाशना होगा.’ इंजीनियरिंग डिपार्मेंट सक्रिय हुआ. जल्द ही ऐसी प्रक्रिया का विकास कर लिया गया, जिससे पूरी प्रक्रिया सेमी-ऑटोमेट यानी आंशिक रूप से स्वचालित हो गई.
पहली इंडिका 1998 में बाजार में आई तो आलोचनाओं का शिकार हुई
ज़बरदस्त बुकिंग और रिस्पांस के बीच टाटा इंडिका को 1998 में बाज़ार में उतारा गया. इस कार को कई इंजीनियरिंग और गुणवत्ता से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ा. ऊंचे-नीचे टायर वियर, बेल्ट की आवाज़ और डिफ़ेक्टिव पुली जैसी समस्याओं की वजह से कार को आलोचनाएं भी झेलनी पड़ीं. ग्राहकों की शिकायतें बढ़ती चली गईं. प्रतिस्पर्धी कंपनियों ने तो मानो इंडिका के समय से पहले खत्म होने की घोषणा कर दी.
फिर पेश की गई मजबूत और क्वालिटी वाली इंडिका वी2
कार की तीखी आलोचनाओं के बीच रतन टाटा ने आगे आकर लीड किया. कंपनी ने कार में वो सुधार किए, जिसकी जरूरत थी. हर कोई चाहता था कि ये कार कामयाब हो. मेहनत कामयाब हुई. वर्ष 2001 में एक नई मज़बूत इंडिका तैयार थी, जो ना हर क्वालिटी पर खरी थी बल्कि इसमें सारी समस्याएं दूर की जा चुकी थीं.
इसने टाटा की कारों को खड़ा कर दिया
‘हर कार में कुछ ज्यादा कार (इवन मोर कार पर कार)’ पंचलाइन के साथ नई कार टाटा इंडिका वी2 के रूप में बाज़ार में पेश की गई. इंडिका वी2 का प्रभाव तात्कालिक व असाधारण था. इसने ना केवल इंडिका को नई जिंदगी दी बल्कि ज़बरदस्त सफलता भी दिलाई. टाटा मोटर्स की सुपर हिट कारों और यात्री वाहनों का काफिला आज जहां खड़ा था, उसके मूल में इंडिका वी2 ही थी.
सबसे तेज बिकने वाली भारतीय कार
18 महीने से भी कम समय में एक लाख कारें बेचने के साथ ये भारतीय इतिहास में सबसे तेज बिकने वाली कार बन गई. 2001 में राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक सुस्ती के बावजूद इंडिका वी 2 ने उस वर्ष 46 प्रतिशत से ऊपर ग्रोथ दर्ज की. प्रतिष्ठित टेलीविजन प्रोग्राम बीबीसी व्हील्स ने तीन लाख रुपए से पांच लाख रुपए की कैटेगरी में टाटा इंडिका को बेस्ट कार घोषित किया.
टाटा मोटर्स की टीम ने खुद को ज़्यादा काबिल साबित कर दिया. भारत की डिज़ाइन की गई पहली स्वदेशी कार बड़ी सफलता बन चुकी थी, जो टाटा कारों की कहानी को आगे बढ़ाकर और बड़ा करने वाली थी.

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संजय श्रीवास्तवडिप्टी एडीटर
लेखक न्यूज18 में डिप्टी एडीटर हैं. प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में काम करने का 30 सालों से ज्यादा का अनुभव. लंबे पत्रकारिता जीवन में लोकल रिपोर्टिंग से लेकर खेल पत्रकारिता का अनुभव. रिसर्च जैसे विषयों में खास...और पढ़ें
लेखक न्यूज18 में डिप्टी एडीटर हैं. प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में काम करने का 30 सालों से ज्यादा का अनुभव. लंबे पत्रकारिता जीवन में लोकल रिपोर्टिंग से लेकर खेल पत्रकारिता का अनुभव. रिसर्च जैसे विषयों में खास... और पढ़ें
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