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क्या है सॉलिड फ्यूल तकनीक जिसके पीछे पड़ा है उत्तर कोरिया, क्या है भारत का हाल

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उत्तर कोरिया ने अपने नए विकसित सॉलिड फ्यूल इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया है. उसका लंबी दूरी की मार करने वाली मिसाइल में ठोस ईंधन के उपयोग का यह पहली बार किया गया परीक्षण है. भारत पहले ही इस तरह की तकनीक का उपयोग करने में सक्षम है.

क्या है सॉलिड फ्यूल तकनीक जिसके पीछे पड़ा है उत्तर कोरिया, क्या है भारत का हालबैलेस्टिक मिसाइल तकनीक में ठोस ईंधन का उपयोग उत्तर कोरिया के लिए नई उपलब्धि है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)
दुनिया में हथियारों की जरूरत पहले भी कम नहीं थी जो अब रूस यूक्रेन युद्ध ने इस उद्योग का स्वर्णिम युग ला दिया है. लेकिन लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइल का बाजार नहीं आम हथियारों के जैसा नहीं हैं, क्योंकि इसकी खरीद फरोख्त नहीं होती है. इसमें परमाणु क्षमता होने की वजह से अधिकांश देश खुद ही इसे विकसित कर इसका निर्माण करते हैं. इंटरनकॉन्टिनेटल बैलेस्टिक मिसाइल भी इसी श्रेणी में आती है और इसमें सॉलिड फ्यूल का उपयोग देश को नई श्रेणी में ला देता है. अब उत्तर कोरिया का दावा है कि उसने अपनी नई ठोस ईंधन वाली इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल का परीक्षण कर लिया है.

क्यों खास होती है ऐसी मिसाइल
ठोस ईंधन से मिसाइल लॉन्च करने में बहुत ज्यादा तैयारी करने की जरूरत नहीं पड़ती है. स्थानीय मीडिया के अनुसार उत्तर कोरिया के इस नए ह्वासॉन्ग-18 नाम के हथियार को परमाणु हथियार चलाने की क्षमता में इजाफा होगा. ठोस ईंधन की खासियत यह होती है कि यह तरल ईंधन  की तुलना में ज्यादा घना होता है और तेजी से जलता है. इससे मिसाइल को खोजने में आसानी नहीं रह जाती है.
कुछ ही देश सक्षम हैं इसमें
माना जाता है कि सदियों पहले चीन ने पटाखों में ठोस ईंधन की तकनीक का उपयोग किया था. वहीं इतिहास में अरब, मंगोल और भारत सहित और देशों भी इसे हथियारों में उपयोगों में लाते थे. लेकिन 20 सदी के मध्य में अमेरिका ने इसे शक्तिशाली प्रणोदक के तौर पर उपयोग में लाने की शुरुआत की थी. इसके बाद सेवियत संघ, ने 1970 के दशक में, फिर फ्रांस ने इसे मध्यम दूरी की बैलेस्टिक मिसाइल में उपयोग करना शुरू किया था. चीन 1990 में इस श्रेणी में आया था.

क्या है भारत की स्थिति
भारत इस समय अग्नि 5 मिलाइल में ठोस ईंधन का इस्तेमाल कर सकता है. इसके अलावा भारत के रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) द्वारा विकसित सॉलिड फ्यूल्ड डक्टेड रैमजैट नाम का मिसाइल प्रोपेलैंट सिस्टम पर काम चल रहा है जिसके कुछ सफल परीक्षण भी हो चुके हैं. इसके अलावा अस्त्र और के-100 जैसी मिलाइलों में भी ठोस ईंधन का उपयोग होता है.
भारत की अग्नि 5 मिसाइल में भी ठोस ईंधन का उपयोग किया जा सकता है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)
क्या है सॉलिड फ्यूल टेक्नोलॉजी
ठोस ईंधन की तकनीक में ठोस प्रणोदकों (प्रोपेलैंट) में ईंधन और ऑक्सीकारक का मिश्रण होता है. एल्यूमीनियम जैसे धातु के पाउडर प्रायः ईंधन की तरह काम करते हैं और एल्यूमीनियम परकोलेट जो परक्लोरिक एसिड और अमोनिया का नमक है, सबसे ज्यादा उपयोग में लाया जाने वाला ऑक्सीकारक होता है. ईंधन और ऑक्सीकारक को आपस में मिलाया जाता है जिससे रबड़ जैसा पदार्थ बनता है और फिर उसे धातु के आवरण में रख दिया जाता है.
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कैसे काम करता है ठोस ईंधन
ठोस ईंधन की खास बाद यही होती है कि जब वजह जलता है तो अमोनियम परक्लोरेट जैसे ऑक्सीकारक एल्यूमीनियम के साथ मिलकर बहुत ज्यादा मात्रा में ऊर्जा और तापमान (2750 डिग्री सेल्सियस) पैदा करता है जिससे एक भारी धक्के के साथ मिसाइल को लॉन्च पैड से उठने की क्षमता पैदा हो जाती है. इसकी सबसे खास बात यह होती है कि इसकी तुलना में तरल तकनीक में इससे ज्यादा जटिल तकनीक और अतिरिक्त भार लगता है.
ठोस ईंधन आईसीबीएम को कहीं से भी प्रक्षेपित करने में सक्षम बना देता है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)
रखरखाव के अंतर
जहां ठोस ईंधन का रखरखाव आसान होता है, तरल और गैसीय ईंधन के साथ चुनौतियां होती हैं. उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखना मुश्किल होता है. जहां तरल ईंधन की सबसे बड़ी परेशानी उन्हें प्रक्षेपण से ठीक पहले भरने की जरूरत होती है, वहीं वे ज्यादा शक्तिशाली धक्का देने में सक्षम होते हैं. फिर भी ठोस ईंधन की खासियत उनके उपयोग में सुरक्षित होना ही होती है.
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साफ है कि ठोस ईंधन मिसाइल तकनीक के लिहाज से ज्यादा सहूलियत वाले नजर आते हैं. इंटरकॉन्टिनेंटल मिसाइल का ठोस ईंधन के साथ सक्षम होना उसे एक खतरनाक परमाणु सक्षम हथियार की श्रेणी में ला देता है. इन्हें परमाणु हमले की स्थिति में फौरन जवाब देने की काबिलयत के तौर पर भी देखा जाता है. यही दलील उत्तर कोरिया ने भी दी है.
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