किस्सागोई: एक पहलवान का बेटा बन गया दुनिया का सबसे लोकप्रिय बांसुरी वादक
Author:
Agency:News18Hindi
Last Updated:
पंडित हरिप्रसाद जी के पिता उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे, लेकिन बचपन में एक कीर्तन ने हरिप्रसाद के मन पर इतना गहरा असर किया कि उन्होंने सबकुछ छोड़कर अपनी राह तय कर ली.

किसी मशहूर डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन जाए. किसी नामी वकील का बेटा वकालत कर ले. या फिर खिलाड़ी का बेटा खिलाड़ी बन जाए तो कोई नई बात नहीं. ऐसा होता आया है. लेकिन किसी पहलवान का बेटा हाथ में बांसुरी थाम ले और एक दिन दुनिया का सबसे लोकप्रिय बांसुरी वादक बन जाए तो ये अनोखा है. असंभव तो ये भी नहीं क्योंकि इतिहास में गिने चुने ही सही लेकिन ऐसे उदाहरण जरूर मिल जाएंगे जहां बेटे ने पिता से एकदम उलट राह चुन ली. खैर, ये उदाहरण भर इशारा कर रहा है कि आज हम बात करने जा रहे हैं पद्मविभूषण से सम्माविन बांसुरी का पर्याय बन चुके पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की. जो हमें सुनाएंगे अपने बचपन की कहानियां-
पंडित हरिप्रसाद जी के शब्दों में...“मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ था. इलाहाबाद का नाम याद करते ही कुछ बातें जेहन में ताजा हो जाती हैं. पूरा बचपन आंखों के सामने से घूम जाता है. मुझे याद है कि इलाहाबाद में हम जहां रहते थे वहां पूरी दुनिया आती थी. हमारा घर लोकनाथ के पास था. वहां खाने-पीने की एक से बढ़कर एक चीजें मिलती हैं. राम आधार की कुल्फी, हरि की नमकीन खाने लोग जाने कहां-कहां से आते थे. राजा की बर्फी, जलेबी. मेरे घर के बगल में ही भारती भवन की लाइब्रेरी थी. बड़ा अच्छा माहौल था. पास में ही एक व्यायामशाला भी थी. पिता जी पहलवान थे तो वो वहां जाया करते थे. मेरे पिता का नाम वैसे तो श्रीलाल चौरसिया था लेकिन तमाम दंगल प्रतियोगिताएं जीतने की वजह से उन्हें आस पड़ोस के लोग पहलवान साहब ही कहकर बुलाया करते थे. कभी कभी मैं भी वहां जाता था. मेरे घर के पास ही मदन मोहन मालवीय जी का घर भी था. वहां सब्जी खरीदने भी लोग दूर-दूर से आते थे. कुल मिलाकर बहुत चहल पहल वाला मोहल्ला था”.
हरिजी कहते हैं-“मुझे कुछ कुछ याद है कि मां को जब दाह संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो लोग कुछ ‘जलाने’ की बात कर रहे थे. मैं इतना छोटा था कि मुझे छोड़कर सबलोग मां के शव को लेकर चले गए थे. अकेले होने की वजह से मैं बहुत रोया था. मैं सबको खोजने घर से निकल गया था. किसी से पूछते पूछते घाट की तरफ गया था. वहां दलदल में फंस गया था. बड़ा भयावह था वह दिन. अगले दिन पिता जी ने मुझे समझाया कि मां की मौत हो गई है. अब वो वापस नहीं आएगी”.
इतनी छोटी सी उम्र में अकेले रहने पर आप क्या करते थे, पंडित जी उल्टा सवाल पूछ लेते हैं- आप ही सोचिए कि छोटा बच्चा खाली बैठ कर क्या करेगा. वैसे भी बच्चा खाली तो बैठ नहीं सकता है या तो दौड़ेगा भागेगा या फिर किसी को परेशान करेगा. मैं दिन भर यही सब करता रहता था. शाम को जब पिता जी वापस आते थे और अगर कोई उनसे शिकायत करता था तो मुझे मार भी पड़ती थी. पिताजी पहलवान आदमी थे तो थोड़ा दिखाते भी थे कि देखो पहलवान के लड़के को मारा जा रहा है. पिता जी एक बार पूजा करने के लिए बैठे थे तो केरोसीन खत्म हो गया. उन्होंने मुझसे कहाकि केरोसीन लेकर आओ. मैं केरोसीन लेने निकला. रास्ते में एक जगह बंदर का नाच हो रहा था. मैं घंटों वहां खड़ा होकर बंदर का नाच देखता रहा. मेरे दिमाग से ही उतर गया कि मुझे केरोसीन लेने के लिए भेजा गया है. बाद में जब केरोसीन लेकर घर पहुंचा तो बहुत देर हो गई थी. मैंने अपनी तरफ से बहानेबाजी का कई तरीका अपनाया. कहानियां सुनाई कि वहां बहुत भीड़ थी. लेकिन उस रोज मेरा कोई बहाना चला नहीं. उस रोज भी बहुत पिटाई हुई थी”.
बड़े भाई के अचानक जाने के बाद हरिप्रसाद जी के पिता उन्हें पहलवानी कराना चाहते थे. हरिप्रसाद जी का पहलवानी से कोई लेना देना नहीं था. बचपन ने उन्होंने एक बार मंदिर में कीर्तन सुना था. बस वही कीर्तन मन में बैठ गया था. कुछ समय बाद उन्होंने चोरी छुपे बांसुरी बजाना सीखना शुरू किया. एक दिन पिता जी ने पकड़ा तो उन्हें मार भी पड़ी थी. लेकिन बांसुरी सीखनी थी तो सीखी. हरिजी बताते हैं “जब मैं अपने गुरू के पास सीखने गया तो वहां मुझे उनके घर का काम भी करना पड़ता था. दरअसल, उनकी शादी नहीं हुई थी. उन्हें अगर कोई काम है तो उसे करना मैं अपना कर्तव्य समझता था. अगर मुझे लगता था कि अगर उनसे कुछ पाना है तो उन्हें कुछ देना भी था. पैसे तो मेरे पास थे नहीं कि मैं उन्हें दूं. वैसे वो पैसे कभी मांगते भी नहीं थे. गुरूजी बहुत ही साधारण व्यक्ति थे. कभी कभी कहते थे कि जरा सब्जी लेते आओ. जरा मसाले लेते आओ. जरा मसाले को पीस दो. जरा बर्तन मांज दो. बस ऐसे ही घरेलू काम करने होते थे. वो मुझे प्यार भी बहुत करते थे. कोई भी दिन ऐसा नहीं होता था जब वो मुझे खाना खिलाए बिना खुद खा लें. वो उम्र में भी ज्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन गुरू तो गुरू होता है. मेरी नजर में तो वो भगवान जैसे हैं.
पहले कार्यक्रम की कौन सी बात याद है?
पंडित जी कहते हैं- मेरा पहला कार्यक्रम रेडिया का था. बच्चों का कार्यक्रम. उस कार्यक्रम में मेरे अलावा कई जाने माने कलाकार हिस्सा लेते थे और गायन-वादन करते थे. हम लोगों के कार्यक्रम की बड़ी चर्चा हो गई थी. लोग दूर दूर से सुनने आते थे कि चलो भाई बच्चे बहुत अच्छा गा बजा रहे हैं. इससे हम लोगों की भी हिम्मत बढ़ी कि हम गा-बजा सकते हैं. इलाहाबाद में वैसे कोई बहुत ज्यादा कार्यक्रम नहीं होते थे लेकिन रेडियो में बहुत सारी गतिविधियां होती थीं जिसमें हम लोग लगे रहते थे. बाद में 1969 में मैंने इलाहाबाद छोड़ा. और मैं उड़ीसा पहुंच गया नौकरी करने के लिए तो वहां बहुत सारे कार्यक्रम होते थे. वहां की परेशानी ये थी कि वहां ओडिसी नृत्य देखने वाले तो बहुत से लोग होते थे लेकिन शास्त्रीय संगीत सुनने वाले लोग कम होते थे. कुछ समय बाद उड़ीसा में हमारा थोड़ा नाम हो गया था. बहुत सारे लोग मुझे सुनने आते थे. कई लड़कियां हमको सुनने के लिए आती थीं. कोई खाना बनाकर ला रहा है, कोई नाश्ता बना कर ला रहा है. लोगों को मुझसे थोड़ी जलन होने लगी कि बाहर से आकर ये कलाकार इतना नाम कमा रहा है, इतना लोकप्रिय हो रहा है. वहां के एक अधिकारी ने मुझे जानबूझकर मुंबई ट्रांसफर कर दिया. मुंबई को उस समय काले पानी की सजा की तरह देखा जाता था. क्योंकि जितने पैसे मिलते थे उतने पैसों में मुंबई में गुजारा करना बहुत मुश्किल था. इसलिए वहां उड़ीसा में कुछ लोगों ने सोचा कि इसे मुंबई भेज दिया जाए, ये वहां क्या करेगा. क्या खाएगा, क्या रियाज करेगा और क्या कार्यक्रम करेगा. ये अलग बात है कि मेरी किस्मत में कुछ और लिखा था. मुंबई में ही फिल्मों में काम करने की शुरूआत हुई. जब मैं मुंबई आ गया तो मुझे लगा कि इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है. स्टूडियो में बंद होकर काम करना होता था. काम कर दिया. घर ले लिया. गाड़ी ले ली. बस और क्या बचा है. कुछ आगे करना चाहिए. बाबा अलाउद्दीन खान का प्यार मिला. उनकी बेटी से सीखने का मौका मिला. यही जीवन की उपलब्धि है.
इलाहाबाद में पैदा होने के बाद भी आपको लोग बनारसी गुरू क्यों बुलाते हैं. पंडित जी मुस्करा कर कहते हैं- इसकी दिलचस्प कहानी है. दरअसल ये बनारस की अपनी भाषा है. वहां किसी को भी गुरु बना लेते हैं. पानवाले को भी गुरु बना लेते हैं. गुंडों को भी गुरु बना लेते हैं. मुझे भी वहां लोगों ने प्यार से गुरु आ गए, गुरु आ गए कहकर बुलाना शुरू कर दिया. तभी से मेरा नाम बनारसी गुरु पड़ गया.
पंडित हरिप्रसाद जी के शब्दों में...“मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ था. इलाहाबाद का नाम याद करते ही कुछ बातें जेहन में ताजा हो जाती हैं. पूरा बचपन आंखों के सामने से घूम जाता है. मुझे याद है कि इलाहाबाद में हम जहां रहते थे वहां पूरी दुनिया आती थी. हमारा घर लोकनाथ के पास था. वहां खाने-पीने की एक से बढ़कर एक चीजें मिलती हैं. राम आधार की कुल्फी, हरि की नमकीन खाने लोग जाने कहां-कहां से आते थे. राजा की बर्फी, जलेबी. मेरे घर के बगल में ही भारती भवन की लाइब्रेरी थी. बड़ा अच्छा माहौल था. पास में ही एक व्यायामशाला भी थी. पिता जी पहलवान थे तो वो वहां जाया करते थे. मेरे पिता का नाम वैसे तो श्रीलाल चौरसिया था लेकिन तमाम दंगल प्रतियोगिताएं जीतने की वजह से उन्हें आस पड़ोस के लोग पहलवान साहब ही कहकर बुलाया करते थे. कभी कभी मैं भी वहां जाता था. मेरे घर के पास ही मदन मोहन मालवीय जी का घर भी था. वहां सब्जी खरीदने भी लोग दूर-दूर से आते थे. कुल मिलाकर बहुत चहल पहल वाला मोहल्ला था”.
छोटे से हरिप्रसाद चौरसिया के जीवन में पहला दुख बहुत कम उम्र में आया. तब शायद उन्हें इतनी समझ भी नहीं थी कि आखिर ऊपरवाले ने उनसे क्या छीन लिया है. उम्र पांच बरस के आस पास रही होगी जब छोटे से हरि की मां परलोक सिधार गईं. दरअसल, हरिप्रसाद के एक भाई का भी बहुत कम उम्र में निधन हो गया था. मां उस सदमे से कभी बाहर निकल ही नहीं पाईं.
हरिजी कहते हैं-“मुझे कुछ कुछ याद है कि मां को जब दाह संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो लोग कुछ ‘जलाने’ की बात कर रहे थे. मैं इतना छोटा था कि मुझे छोड़कर सबलोग मां के शव को लेकर चले गए थे. अकेले होने की वजह से मैं बहुत रोया था. मैं सबको खोजने घर से निकल गया था. किसी से पूछते पूछते घाट की तरफ गया था. वहां दलदल में फंस गया था. बड़ा भयावह था वह दिन. अगले दिन पिता जी ने मुझे समझाया कि मां की मौत हो गई है. अब वो वापस नहीं आएगी”.
इन दोनों घटनाओं ने पहलवान पिता को भी कमजोर कर दिया. वरना उनका जीवन बहुत अनुशासन वाला था. वो तड़के सुबह उठते थे. भजन गाया करते थे. फिर बादाम पीसते थे. फिर पास के मंदिर में जाया करते थे. वहां से लौटते समय घर के जरूरत की चीजें लाया करते थे. गाय का दूध निकालते थे. व्यायामशाला जाया करते थे. अब जब वो ये सारी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए घर से निकलते थे तो हरि अकेले रह जाते थे.
इतनी छोटी सी उम्र में अकेले रहने पर आप क्या करते थे, पंडित जी उल्टा सवाल पूछ लेते हैं- आप ही सोचिए कि छोटा बच्चा खाली बैठ कर क्या करेगा. वैसे भी बच्चा खाली तो बैठ नहीं सकता है या तो दौड़ेगा भागेगा या फिर किसी को परेशान करेगा. मैं दिन भर यही सब करता रहता था. शाम को जब पिता जी वापस आते थे और अगर कोई उनसे शिकायत करता था तो मुझे मार भी पड़ती थी. पिताजी पहलवान आदमी थे तो थोड़ा दिखाते भी थे कि देखो पहलवान के लड़के को मारा जा रहा है. पिता जी एक बार पूजा करने के लिए बैठे थे तो केरोसीन खत्म हो गया. उन्होंने मुझसे कहाकि केरोसीन लेकर आओ. मैं केरोसीन लेने निकला. रास्ते में एक जगह बंदर का नाच हो रहा था. मैं घंटों वहां खड़ा होकर बंदर का नाच देखता रहा. मेरे दिमाग से ही उतर गया कि मुझे केरोसीन लेने के लिए भेजा गया है. बाद में जब केरोसीन लेकर घर पहुंचा तो बहुत देर हो गई थी. मैंने अपनी तरफ से बहानेबाजी का कई तरीका अपनाया. कहानियां सुनाई कि वहां बहुत भीड़ थी. लेकिन उस रोज मेरा कोई बहाना चला नहीं. उस रोज भी बहुत पिटाई हुई थी”.
बड़े भाई के अचानक जाने के बाद हरिप्रसाद जी के पिता उन्हें पहलवानी कराना चाहते थे. हरिप्रसाद जी का पहलवानी से कोई लेना देना नहीं था. बचपन ने उन्होंने एक बार मंदिर में कीर्तन सुना था. बस वही कीर्तन मन में बैठ गया था. कुछ समय बाद उन्होंने चोरी छुपे बांसुरी बजाना सीखना शुरू किया. एक दिन पिता जी ने पकड़ा तो उन्हें मार भी पड़ी थी. लेकिन बांसुरी सीखनी थी तो सीखी. हरिजी बताते हैं “जब मैं अपने गुरू के पास सीखने गया तो वहां मुझे उनके घर का काम भी करना पड़ता था. दरअसल, उनकी शादी नहीं हुई थी. उन्हें अगर कोई काम है तो उसे करना मैं अपना कर्तव्य समझता था. अगर मुझे लगता था कि अगर उनसे कुछ पाना है तो उन्हें कुछ देना भी था. पैसे तो मेरे पास थे नहीं कि मैं उन्हें दूं. वैसे वो पैसे कभी मांगते भी नहीं थे. गुरूजी बहुत ही साधारण व्यक्ति थे. कभी कभी कहते थे कि जरा सब्जी लेते आओ. जरा मसाले लेते आओ. जरा मसाले को पीस दो. जरा बर्तन मांज दो. बस ऐसे ही घरेलू काम करने होते थे. वो मुझे प्यार भी बहुत करते थे. कोई भी दिन ऐसा नहीं होता था जब वो मुझे खाना खिलाए बिना खुद खा लें. वो उम्र में भी ज्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन गुरू तो गुरू होता है. मेरी नजर में तो वो भगवान जैसे हैं.
पहले कार्यक्रम की कौन सी बात याद है?
पंडित जी कहते हैं- मेरा पहला कार्यक्रम रेडिया का था. बच्चों का कार्यक्रम. उस कार्यक्रम में मेरे अलावा कई जाने माने कलाकार हिस्सा लेते थे और गायन-वादन करते थे. हम लोगों के कार्यक्रम की बड़ी चर्चा हो गई थी. लोग दूर दूर से सुनने आते थे कि चलो भाई बच्चे बहुत अच्छा गा बजा रहे हैं. इससे हम लोगों की भी हिम्मत बढ़ी कि हम गा-बजा सकते हैं. इलाहाबाद में वैसे कोई बहुत ज्यादा कार्यक्रम नहीं होते थे लेकिन रेडियो में बहुत सारी गतिविधियां होती थीं जिसमें हम लोग लगे रहते थे. बाद में 1969 में मैंने इलाहाबाद छोड़ा. और मैं उड़ीसा पहुंच गया नौकरी करने के लिए तो वहां बहुत सारे कार्यक्रम होते थे. वहां की परेशानी ये थी कि वहां ओडिसी नृत्य देखने वाले तो बहुत से लोग होते थे लेकिन शास्त्रीय संगीत सुनने वाले लोग कम होते थे. कुछ समय बाद उड़ीसा में हमारा थोड़ा नाम हो गया था. बहुत सारे लोग मुझे सुनने आते थे. कई लड़कियां हमको सुनने के लिए आती थीं. कोई खाना बनाकर ला रहा है, कोई नाश्ता बना कर ला रहा है. लोगों को मुझसे थोड़ी जलन होने लगी कि बाहर से आकर ये कलाकार इतना नाम कमा रहा है, इतना लोकप्रिय हो रहा है. वहां के एक अधिकारी ने मुझे जानबूझकर मुंबई ट्रांसफर कर दिया. मुंबई को उस समय काले पानी की सजा की तरह देखा जाता था. क्योंकि जितने पैसे मिलते थे उतने पैसों में मुंबई में गुजारा करना बहुत मुश्किल था. इसलिए वहां उड़ीसा में कुछ लोगों ने सोचा कि इसे मुंबई भेज दिया जाए, ये वहां क्या करेगा. क्या खाएगा, क्या रियाज करेगा और क्या कार्यक्रम करेगा. ये अलग बात है कि मेरी किस्मत में कुछ और लिखा था. मुंबई में ही फिल्मों में काम करने की शुरूआत हुई. जब मैं मुंबई आ गया तो मुझे लगा कि इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है. स्टूडियो में बंद होकर काम करना होता था. काम कर दिया. घर ले लिया. गाड़ी ले ली. बस और क्या बचा है. कुछ आगे करना चाहिए. बाबा अलाउद्दीन खान का प्यार मिला. उनकी बेटी से सीखने का मौका मिला. यही जीवन की उपलब्धि है.
इलाहाबाद में पैदा होने के बाद भी आपको लोग बनारसी गुरू क्यों बुलाते हैं. पंडित जी मुस्करा कर कहते हैं- इसकी दिलचस्प कहानी है. दरअसल ये बनारस की अपनी भाषा है. वहां किसी को भी गुरु बना लेते हैं. पानवाले को भी गुरु बना लेते हैं. गुंडों को भी गुरु बना लेते हैं. मुझे भी वहां लोगों ने प्यार से गुरु आ गए, गुरु आ गए कहकर बुलाना शुरू कर दिया. तभी से मेरा नाम बनारसी गुरु पड़ गया.
About the Author
शिवेन्द्र कुमार सिंह
Freelance Writer
Freelance Writer
न्यूज़18 को गूगल पर अपने पसंदीदा समाचार स्रोत के रूप में जोड़ने के लिए यहां क्लिक करें।
और पढ़ें