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भगत की मुस्कुराहट ने मौत के माथे पर भी डाल दिए थे बल, ऐसे बिताए थे जिंदगी के वो आखिरी पल

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शहीदे आजम भगत सिंह एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनकी बहादुरी और साहस के किस्से उनकी शहादत के 85 साल बाद आज भी सुने और सुनाए जाते हैं. उनके इंकलाब के नारे आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी हंसते-हंसते इस देश पर कुर्बान कर दी थी. उनकी यादों को आज भी लोग अपने हृदय में संजोकर रखते हैं.

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शहीदे आजम भगत सिंह एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनकी बहादुरी और साहस के किस्से उनकी शहादत के 85 साल बाद आज भी सुने और सुनाए जाते हैं. उनके इंकलाब के नारे आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी हंसते-हंसते इस देश पर कुर्बान कर दी थी. उनकी यादों को आज भी लोग अपने हृदय में संजोकर रखते हैं.

भगत की मुस्कुराहट ने मौत के माथे पर भी डाल दिए थे बल, ऐसे बिताए थे जिंदगी के वो आखिरी पल
File Photo


भगत सिंह एक ऐसे देशभक्त थे जिनकी मुस्कुराहटों ने मौत के माथे पर भी शिकन ला दी थी. भगत सिंह की आखिरी रात कैसी रही होगी. उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी पल कैसे बिताए होंगे. शायद, इस बात को जानकर आज फिर आपकी आंखें नम हो जाएं और भगत सिंह के लिए आपका प्रेम और भी गाढ़ा हो जाए.


यह बात 23 मार्च 1931 की है. शाम के करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह और उनके दोनों क्रांतिकारी साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई. फांसी पर जाने से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे हैं और उन्हें इसे पूरा पढ़ने का वक्त दिया जाए. जेल के अधिकारियों ने उन्हें जीवनी पूरा करने का वक्त दे दिया. भगत ने जब पूरी जीवनी पढ़ ली तो जेल के अधिकारियों ने उन्हें उनकी फांसी के बारे में बताया. अपनी फांसी के बारे में सुनकर भगत मुस्कुराए और कहा "ठहरिये! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल तो ले." फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।"


फांसी के लिए जाते समय वे तीनों क्रांतिकारी मस्ती में गुनगुनाते जा रहे थे -

मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे

मेरा रंग दे बसंती चोला. माय रंग दे बसंती चोला


जिंदगी के वो आखिरी पल


लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 की वो सुबह भी अन्य दिनों की तरह ही थी. फर्क सिर्फ इतना था कि उस सुबह जोर की आंधी आई थी. लेकिन जेल के कैदियों को थोड़ा अजीब सा लगा जब 4 बजे ही वॉर्डन चरत सिंह ने उनसे आकर कहा कि वो अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाएं. उन्होंने इसका कारण तो नहीं बताया, लेकिन उनके मुंह से सिर्फ इतना ही निकला कि आदेश ऊपर से है. अभी कैदी इस बारे में सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, जेल का नाई बरकत हर कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुजरा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है. उस पल ने जैसे उन कैदियों झंकझोर कर रख दिया.


कैदियों ने बरकत से कहा कि वो फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी निशानी जैसे पेन, कंघा या घड़ी उन्हें लाकर दे दें, ताकि वो अपने पोते-पोतियों को बता सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे.


बरकत, भगत सिंह की कोठरी में गया और वहां से उनका पेन और कंघा ले आया. सारे कैदियों में भगत की चीजें लेने की होड़ लग गई. हर कोई उनकी चीजों पर हक बता रहा था. आखिरी में ड्रॉ निकाला गया और जिसके हिस्से में जो आया उसे वो दे दिया गया.


वॉर्डन चरत सिंह, भगत सिंह के शुभचिंतक थे और अपनी तरफ से जो कुछ बन पड़ता था, उनके लिए करते थे. उनकी वजह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगत सिंह के लिए किताबें निकल कर जेल के अंदर आ पाती थीं.

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